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भाषण : बुद्ध जयन्तीके अवसरपर

एक छोटेसे मन्दिरमें जाकर उनकी प्रतिमा पूजने या उनका नाम लेने न-लेनेसे क्या होता है। मेरा हिन्दूधर्म मुझे सिखाता है कि यदि मेरा हृदय शुद्ध है तो मैं चाहे श्रीरामकी जगह 'मरा' ही क्यों न कहूँ, फिर भी मैं उतने ही बलसे या उससे अधिक बलसे उसे रट सकता हूँ कि जितने बलसे शिक्षित ब्राह्मण रटते हैं। इसलिए मैं डा॰ धर्मपालसे कहता हूँ, उन्हें बहुतसे लोगोंका समर्थन मिले या न मिले, होनोलुलुकी कोई महिला एक बड़ी धनराशि दानमें दे या न दे, इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता। मेरा तो विनम्र मत यही है कि बुद्धने हमें सिखाया है कि जो व्यक्ति सत्यका अन्वेषण करता है उसके साथ लाखों लोगोंका होना कोई आवश्यक बात नहीं है।

प्रत्येक व्यक्तिको अपने-आपसे पूछना चाहिए कि जिस दया और करुणाका संदेश हमें बुद्धने सुनाया था उसे हमने किस हदतक अपने जीवनमें उतारा है और जिस हदतक हम उसे अपने जीवनमें उतार पाये हैं उतनी ही हदतक हम उस महान् विभूतिको श्रद्धांजलि चढ़ाने के अधिकारी हैं। मुझे जरा भी सन्देह नहीं कि जबतक यह संसार रहेगा तबतक उनका दर्जा मानवताके महानतम शिक्षकोंमें रहेगा। बुद्धने लगभग २५०० वर्ष पूर्व जो विचार दिया था वह कभी नष्ट नहीं होगा। विचार यद्यपि मंद गतिसे आगे बढ़ते हैं फिर भी वे अपने निशान छोड़ जाते हैं। यद्यपि सम्भव है कि बौद्धधर्म भी अन्य सभी धर्मोके समान ही इस समय पतनोन्मुख ही दिखाई पड़ता हो, पर वास्तवमें इसका बीज अंकुरित हो रहा है। मैं अब भी आशा करता हूँ कि हमारा दिन आ रहा है, वह दिन जब पाखण्ड, असत्याचरण, अविश्वसनीयता अर्थात् "पतन" के सभी महान् धर्मोंको कपट, साथ जुड़े हुए सभी लक्षणोंसे मुक्ति मिल सकेगी। वंचनासे मुक्ति पाकर वे शुद्ध हो जायेंगे और एक दिन आयेगा जब सीखनेके इच्छुक लोग सीख लेंगे कि सत्य और प्रेम एक ही सिक्केके दो पहलू हैं। वहीं और केवल वही सिक्का खरा है, अन्य सभी खोटे हैं।

भगवान बुद्धने कई सौ वर्ष पूर्व जो सन्देश मानवताको दिया था, ईश्वर हमें उसका सत्य महसूस करनेकी शक्ति दे और हममें से प्रत्येक उसे अपने जीवन में उतारनेका प्रयत्न करे, चाहे हम अपने-आपको हिन्दू कहें या न कहें।

[अंग्रेजीसे]
अमृतबाजार पत्रिका, ९–५–१९२५