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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

जितना धन अन्त्यज भाई इकट्ठा करें, उतना ही राज्य भी दे। इन दोनोंकी कल रकमके बराबर में इकट्ठा करूँ। उस मन्दिरका एक ट्रस्ट बना दिया जाये, जिसमें एक ट्रस्टी अन्त्यजोंकी ओरसे, एक राज्यकी ओरसे और एक मेरी ओरसे नियुक्त किया जाये। ऐसा करनेसे मन्दिर सुव्यवस्थित रहेगा, उसके साथ एक भावना भी जुड़ी रहेगी तथा अन्त्यज भाइयोंको धामिक सुविधा मिलेगी। मन्दिरके साथ पाठशालाकी सुविधा देने की बात भी ध्यानमें रखी गई थी। मैं आशा करता हूँ कि लाठीके अन्त्यज भाइयोंने जो उद्यम शुरू किया था, उसे छोड़ा नहीं होगा।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, २३–८–१९२५
 

५९. कुछ और प्रश्न

जिन सज्जनने आजके अग्रलेखमें[१] चचित प्रश्न पूछे हैं उन्होंने अपने उसी पत्रमें कुछ और प्रश्न भी पूछे हैं। ये प्रश्न चूंकि उन प्रश्नोंसे अलग और अपने-आपमें स्वतन्त्र हैं, इसलिए उनमें से कुछ-एक नीचे दे रहा हूँ :

अलवर राज्य तो पण्डित मालवीयजीको अकेले ही तहकीकात करनेकी इजाजत दे रहा था, फिर भी उन्होंने तहकीकात नहीं की। क्या यह उनकी भूल नहीं है? राज्यकी ओरसे आर्थिक सहायता मिलती हो, सिर्फ इसी कारणसे दब जाना और अपने फर्जसे मुँह मोड़ लेना, सार्वजनिक साहसका परिचय देनमें हिचकना और तहकीकातके मिले हए मौकेको गँवा देना, यह क्या पण्डितजी जैसे नेताके लिए अशोभनीय नहीं है?

मैंने अखबारोंसे पढ़कर पण्डितजीके विषयमें लिखा था। लेखकने उतावलीमें उलटा अनुमान लगा लिया है। अलवर जानेकी तथा तहकीकात करने की इजाजत मिली ही नहीं। अलवर-नरेशके अधिकारीवर्गने डायरशाही चला रखी है; और अलवर नरेशने खली तहकीकातको रोककर स्वेच्छाचारका अवलम्बन किया है और इस तरह राजमुकुटके तेजको कम कर दिया है। पण्डितजी ऐसे भीरु नहीं है कि तहकीकातका मौका उन्हें मिले और वे उसे गँवा दें। कोई स्वप्न में भी यह खयाल न लाये कि पण्डितजी पैसेके लिए आत्माको बेच देंगे।

आपका यह कहना कि किसी विषयपर पति-पत्नीके विचार अलग-अलग हों, तब भी उन्हें एक-दूसरेके विचारको सहन करना चाहिए और इस तरह यदि पत्नी विदेशी वस्त्र पहनना चाहे तो पति उसे विदेशी वस्त्र भी दे, मुझे युक्तिसंगत नहीं मालूम होता। पत्नी यदि पतिका कहना न माने तो भी पतिको उसका कहना अवश्य मानना चाहिए, यह कहाँका न्याय है? एक सुधारक दम्पती
  1. देखिए "मालिकोंमें से एक", २३–८–१९२५।