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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


मुझे स्वीकार करना होगा कि इस विधेयकका मुझको कोई ज्ञान नहीं है, लेकिन मैं सहमतिकी वयको बढ़ाकर १४ वर्ष ही नहीं, १६ वर्ष कर देने के पक्षमें हूँ। इसलिए यद्यपि मैं विधेयकके पाठके विषयमें कुछ नहीं कह सकता, किन्तु मैं ऐसे किसी भी आन्दोलनका हार्दिक समर्थन करूँगा जिसका उद्देश्य कच्ची उम्रकी लड़कियोंको पुरुषकी वासनासे बचाना हो। १४ वर्षकी किशोर लड़कीको किसी पुरुषकी वासना-तृप्तिका साधन होना पड़े, यह चीज मेरी नम्र रायमें अनैतिक और अमानवीय है और तथाकथित विवाह-विधिके नामपर अब उसे वैध कह सकना असम्भव हो जाना चाहिए। जो प्रथा अपने-आपमें अनैतिक हो उसे संस्कृत-ग्रन्थों में ऐसे वचनोके बलपर सही नहीं सिद्ध किया जा सकता जिनका आप्तत्व सन्देहास्पद है। मैने अनेक बाल-माताओंके स्वास्थ्यको नष्ट होते देखा है और अगर बाल-विवाहकी इस भयानक बुराईमें बलात् थोपा गया बाल-वैधव्य भी शामिल कर लीजिए तब तो इस मानवीय दुःख-गाथाकी पराकाष्ठा ही हो जाती है। सहमतिकी वय बढ़ानेके उद्देश्यसे बनाये जानेवाले किसी भी विवेकपूर्ण कानूनको निश्चय ही मेरी सहमति प्राप्त होगी। लेकिन, मैं बड़े दुःखके साथ देख रहा हूँ कि लोकमतके समर्थनके अभावमें इस विषयसे सम्बन्धित वर्तमान कानून भी असफल ही साबित हुआ है। अन्य क्षेत्रोंकी तरह इस क्षेत्रमें भी सुधारकोंका काम अत्यन्त कठिन है। अगर हिन्दू जनताके मानसपर वास्तविक प्रभाव डालना हो तो उसके लिए अथक और अनवरत आन्दोलनकी आवश्यकता है। जो लोग भारतीय बालिकाओंको असमयमें बुढ़ापेका शिकार होने और अकाल ही काल-कवलित होने तथा हिन्दू-धर्मको क्षीण दुर्बल सन्तानोंके जन्मके लिए दोषी होनेसे बचानेके इस नेक काममें लगे हुए है, मैं उनकी पूरी सफलताकी कामना करता हूँ।

[अंग्रेजीसे ]
यंग इंडिया, २७–८–१९२५
 

६६. स्वराज्य या मृत्यु

नीचे एक पत्र[१] दिया जा रहा है इसलिए नहीं कि उसका वक्तव्य अपने-आपमें मूल्यवान है। उसे देने का कारण यह है कि लेखकने, जिनको मैं जानता हूँ, उसे बड़ी उत्कटतासे लिखा है, और उन्होंने जो विचार व्यक्त किये हैं, वैसे विचार बहुतसे दूसरे लोग भी रखते हैं।

पत्र-लेखकने जो दलीलें पेश की है, उनमें कुछ सच्चाई जरूर है। लेकिन उनका बुराईका सारा दोष सरकारके मत्थे मढ़ना सरासर गलत है। आखिर अंग्रेजीकी यह उक्ति कि किसी भी देशको जनताको वैसी ही सरकार मिलती है जिसके वह लायक होती है, क्या बहुत अंशोंमें सच नहीं है? अगर हम आसानीसे बुद्ध बन जानेवाले या दब जानेवाले लोग न होते तो हम ईस्ट इंडिया कम्पनीकी चिकनी-चुपड़ीके चक्कर

  1. पत्रके पाठके लिए देखिए परिशिष्ट १।