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७३. भाषण : कलकत्ताके भारतीय ईसाइयोंके समक्ष[१]

२९ अगस्त, १९२५

महात्माजी जब बोलने के लिए खड़े हुए तो श्रोता-समुदायने तीव्र हर्षध्वनिसे उनका स्वागत किया। उन्होंने कहा, जब बाबू कालीचरण बन के पुत्रने मुझसे भारतीय ईसाई समाज के सामने भाषण देनके लिए अनुरोध किया तो उसे स्वीकार करनेके अलावा मेरे सामने और कोई चारा ही नहीं था, क्योंकि यह अनुरोध उन सज्जनके गुत्रने किया था जिनका में अत्यन्त आदर करता है और जिनसे एक कठिन समयमें लेनके लिए मिलनका भी सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ था। महात्माजीने आगे कहा कि मुझे आपसे कोई नई बात नहीं कहनी है। मुझे भारतीय ईसाई भाइयोंसे जो-कुछ कहना है, वह मैं पहले भी कई बार कह चुका हूँ और आपने वह सब अखबारों में पढ़ा भी होगा। मैं पहले-पहल भारतीय ईसाइयोंके निकट सम्पर्कमें उस समय आया जब में दक्षिण आफ्रिकामें था। वहाँ बहुतसे भारतीय ईसाइयोंसे मेरा परिचय हुआ, और चाहे मेरी खुशीको घड़ियाँ हों या परीक्षा और कठिनाईके प्रसंग हों, सबमें वे मेरे बराबरके भागोदार हुआ करते थे। भारतीय ईसाइयोंके साथ मेरी अन्तरंगता तबसे बराबर बढ़ती ही गई है।

इसके बाद महात्माजीने भारतीय ईसाइयोंकी दुःखद स्थितिका उल्लेख किया और कहा कि यह स्थिति ईसाई धर्म और यूरोपीय तौर तरीके, दोनोंको एक चीज माननके कारण पैदा हुई है। उन्होंने कहा कि इस विकृत मनोवृत्तिको मैंने सबसे पहले दक्षिण आफ्रिकाके भारतीय ईसाइयों में लक्षित किया, और तबसे बराबर में इस बुरी वृत्तिको दूर करने के लिए प्रयत्न करता रहा हूँ। मैंने अकसर यह दिखानेकी कोशिश की है कि यरोपोय ईसाई समाज और भारतीय ईसाई समाजके तौर तरीकोंके बीच एक स्पष्ट अन्तर है। कल शामको एक सभामें मैंने यह बताया था कि जातिविद्वेषकी भावना राष्ट्रीयता नहीं है।[२] इसी प्रकार मैंन यह बताया था कि ईसाई धर्मका मतलब लोगोंको राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रीय संस्कारोंसे विमुख करना नहीं है। मेरा निश्चित मत है कि आप लोगोंको ईसाई धर्मका मतलब यूरोपीयकरण नहीं मानना चाहिए। ईसाई धर्मको कोई भौगोलिक सीमा नहीं है। ईसा मसीहने अपना सारा जीवन एशियामें ही बिताया है और निश्चय ही यूरोपीयकरणसे ईसाई धर्मका कोई वास्ता नहीं है।

  1. यह सभा बंगाल क्रिश्चियन तत्त्वविधानमें हुई थी। इसकी अध्यक्षता प्रोफेसर जे॰ के॰ बनर्जीने की थी।
  2. देखिए "भाषण राष्ट्रीयता पर" २८–८–१९२५