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८७. गोरक्षा

ज्यों-ज्यों में गोरक्षाकी समस्याका अध्ययन करता हूँ त्यों-त्यों उसका महत्त्व मेरी समझमें अधिक आता जाता है। हिन्दुस्तानमें गोरक्षाका प्रश्न दिन-ब-दिन गम्भीर होता जायेगा, क्योंकि उसमें देशकी आर्थिक स्थितिका प्रश्न छिपा हुआ है। मैं तो ऐसा मानता हूँ कि धर्म-मात्रमें आर्थिक, राजनीतिक इत्यादि विषयोंका समावेश है। जो धर्मशद्ध अर्थका विरोधी है, वह धर्म नहीं है; जो धर्मशद्ध राजनीतिका विरोधी है, वह धर्म नहीं है। दूसरी ओर धर्म-रहित अर्थ त्याज्य है। धर्म-रहित राजसत्ता आसुरी है। अर्थ आदिसे अलग धर्म नामकी कोई वस्तु नहीं है। व्यक्ति अथवा समाज धर्मके सहारे जीवित रहता है, और अधर्मसे नष्ट होता है। सत्यके सहारे किया अथ-संग्रह अर्थात् व्यापार प्रजाका पोषण करता है। सत्यासत्यके विचारसे रहित व्यापार प्रजाका नाश करता है। इस बातके अनेक दृष्टान्त दिये जा सकते है कि असत्यसे, छल-कपटसे अर्जित लाभ क्षणिक है और अन्तमें वह हानिकारक ही है।

इसलिए गोरक्षाके धर्मका विचार करते हुए हमको अर्थका विचार करना ही पड़ेगा। यदि गोरक्षा शुद्ध अर्थके विरोधमें हो तो उसका त्याग किये बिना चारा नहीं है। सच तो यह है कि उस स्थितिमें हम यदि गोरक्षा करना चाहेंगे तो भी वह असम्भव सिद्ध होगी।

गोरक्षाके अन्दर छिपे अर्थ-लाभका विचार हमने नहीं किया, इसीसे जिस देशके असंख्य लोग गोरक्षाको धर्म मानते हैं, उसी देशमें गाय और गोवंश भूखों मर रहा है। उनकी हड्डी-हड्डी बाहर निकली रहती है—ऐसीकि गिनी जा सकें। और उनका वध केवल हिन्दुओंको लापरवाहीके कारण ही होता है। गोरक्षामें हिन्दुस्तानकी खेतीका अस्तित्व भी समाहित है। यदि हिन्दू-मात्र गोरक्षाका अर्थशास्त्र समझ लें, तो गोहत्या बन्द हो जाये। जितनी गायोंकी हत्या धर्मके नामपर होती है, उससे सौगुना अधिक गायोंकी हत्या हिन्दुओंकी मूर्खताके कारण होती है। जबतक हिन्दू खुद गोरक्षाका शास्त्र न समझेंगे तबतक करोड़ों रुपया खर्च करनेपर भी गायकी रक्षा होनेवाली नहीं है।

गुजरातके बनिये, भाटिये और मारवाड़ी गोरक्षाका प्रयत्न करते हैं वे उसके लिए खूब धन खर्च करते हैं। उनमें भी इस कार्यके लिए सबसे ज्यादा उत्साह मारवाड़ी दिखाते हैं। हिन्दुस्तानमें सबसे ज्यादा गोशालाएँ मारवाड़ी व्यापारी ही चलाते हैं। वे उसमें लाखों रुपये खुशीसे देते हैं। और इसीसे मैंने कहा है कि मारवाड़ियोंके बिना गोरक्षाका प्रश्न हल नहीं हो सकता। मैंने गोशालाएँ देखी है। किन्तु उनमें से एक भी गोशालाके विषयमें मैं यह नहीं कह सकता कि यह आदर्श गोशाला है।

ये विचार कलकत्तेकी लिलुआकी गोशाला देखनेसे उत्पन्न हुए हैं। इस गोशालापर हर वर्ष ढाई लाख रुपये खर्च होते हैं। किन्तु उससे जो लाभ मिलता है, वह नहीं के बराबर कहा जा सकता है। जिसे हर वर्ष ढाई लाख रुपये मिलते हैं, उस