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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

जिस दोषके लिए हमें दुनिया दण्ड नहीं दे सकती यदि हम स्वेच्छासे उस दोषसे मुक्त रहते हैं तो निर्दोषता उसीका नाम है। जबर्दस्तीसे अथवा भय-वश दिये गये दानमें पुण्य नहीं है। इस तरह किसी भी दृष्टिसे विचार करनेपर हमारा एक ही धर्म है और वह यह कि जिस-जिस व्यक्तिने कमेटीसे पैसा लिया है वह उसे निरलस और जाग्रत होकर तत्काल चुका दे और ऋणमुक्त हो जाये।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, १३–९–१९२५
 

९९. हमारी गन्दगी—२

पिछले सप्ताहमें हमने समाजमें फैली हुई गन्दगीपर विचार किया था।[१] जहाँतहाँ शौच जाने की आदत लोगोंको छोड़ देनी चाहिए। शहर हो या गाँव हमें निर्दिष्ट स्थानपर ही शौच जाने की आदत डालनी चाहिए। आजकल बात इससे उलटी है। यहाँतक कि घरोंके बाड़े अथवा गाँवकी गलियाँ बिगाड़ने में भी हम लोग जरा नहीं सँकुचाते। उससे दुर्गन्ध बढ़ती है, हवा खराब होती है और आँगनों या गलियोंमें नंगे पैर चलनातक मुश्किल हो जाता है। गांवों में कुछ मुकर्रर किये गये खेतों अथवा अपनेअपने खेतमें शौच जाना चाहिए और शौच-क्रिया पूरी करने के बाद हरएक आदमीको उसपर सूखी मिट्टी डाल देनी चाहिए। इसका सबसे अच्छा तरीका है छोटी कुदाली वा फावड़ेसे जमीन खोदकर गड्ढे में शौच जाना और फिर खोदकर निकाली हुई उसी मिट्टीसे गड्ढेको भर देना। इसके बाद अगर वहाँ कुछ निशानी रख देनेका रिवाज डाल दें तो उससे लोग जान भी सकेंगे। इसमें एकान्तका भंग न हो, इसलिए पाँचसात जगहें मुकर्रर की जा सकती है।

लोग अगर समझ जायें और ऐसे प्रबन्धके अनुकूल हों तो यह काम शीघ्र ही और बिना खर्चके हो सकता है। सच पूछा जाये तो इससे बिना परिश्रमके ही बढ़ सकती है और तन्दुरुस्ती भी सुधर सकती है। जिस खेतमें शौच जायेंगे उस खेत की पैदावार बढ़ेगी, यह तो सारा संसार जानता है। यदि लोग इस योजनाका मूल्य समझ जायें तो अपने खेतका ऐसा उपयोग करने के लिए उलटे खर्च करेंगे। ऐसा दूसरे देशोंमें होता है। हमारे देशमें भी कितने ही स्थानोंमें किसान लोग गाँवका मैला ले जानेका ठेका लेते देखे गये हैं। मगर वे लोग इस बुरी तरह मैला उठाते हैं कि देखने में भी घिन लगती है। यदि मेरे सुझाव अमलमें लाये जायें तो किसीको कुछ न उठाना पड़े। हवा भी न बिगड़े और गाँव साफ-सुथरे रहें।

यह तो हुई गाँवकी बात। शहरोंमें ऐसा नहीं हो सकता। शहरोंमें तो पाखाने चाहिए ही। जहाँ विलायती ढंगके पाखाने है और नालियोंके जरिये सारा मैला एक स्थानपर इकट्ठा किया जाता है उसकी चर्चा करना यहाँ निरर्थक है। हमें तो यही

  1. देखिए "हमारी गन्दगी—१", ३०–८१९९५।