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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


हमारी इस बातचीतके बाद व्यायामकी कलामें निष्णात उन प्रोफेसरने बड़ी गम्भीरतापूर्वक मेरी शारीरिक शक्तिके बारेमें चिन्ता प्रकट की और 'नीरोग शरीरमें नीरोग मन' के रहस्योंकी और मेरा ध्यान खींचा। उन्होंने देखा कि मैं बखुशी उनके विचारसे सहमत हो गया। उन्होंने व्यायामके जो प्रयोग मुझे सिखाय वे थे तो मजेदार परन्तु मेरा खयाल है कि मुझ-जैसे अधेड़ आदमीके लिए वे कुछ भारी थे। उन्होंने कहा कि समस्त यूरोपीय व्यायाम विधियोंसे मेरी यह व्यायाम विधि श्रेष्ठ है। मैंने उनके इस कथनकी हार्दिक पुष्टिकी। उनकी व्यायाम क्रियाएँ और कुछ नहीं, हठ-योगकी क्रियायें थीं। में समस्त नवयुवकोंसे उन क्रियाओंका अभ्यास करनेको कहता हूँ। प्राणायामका अभ्यास यदि किसी अनुभवी मनुष्यकी देखरेखमें किया जाये तो उससे स्वास्थ्यको बहुत लाभ पहुँचता है। पर इसके सम्बन्धमें कोई, अपने-आपको धोखा न दे। जो लोग इन क्रियाओंको करना चाहें वे केवल स्वास्थ्यके ही हेतुसे ऐसा करें। निस्सन्देह एक हदतक उनका थोड़ा-बहुत आध्यात्मिक मूल्य भी है। परन्तु मैं जोरके साथ कहना चाहता हूँ कि नवयुवक आध्यात्मिक पुनर्जीवन प्राप्त करने के लिए हठ-योगके फेरमें न पड़ें। वर्तमान युगमें शारीरिक क्रियाओंकी अपेक्षा हार्दिक भक्तिसे वह अधिक प्राप्त होता है और हठ-योगके द्वारा आध्यात्मिक सिद्धि प्राप्त करने के लिए मनुष्यको ऐसे गुरुकी आवश्यकता होती है जो इन क्रियाओंके द्वारा स्वयं आध्यात्मिक सिद्धि प्राप्त कर चुका हो। मैंने ऐसे गुरुकी खोज की है पर मुझे सफलता नहीं मिली। पर इसका यह अर्थ नहीं कि भारतवर्ष में शुद्ध हठ-योगी है ही नहीं। पर जब मुझ जैसा सचेष्ट खोजी सफल नहीं हआ, तब नवयुवक सावधान रहें, और बिना कड़ी परीक्षाके किसीको अपना गुरु न बना बैठें।

पर मैं तो इधर-उधर भटक गया। मुझे अपने उस वायदेको पूरा करना चाहिए। जो मैने प्रोफेसर साहबसे उस समय किया था जब उन्होंने मेरे और उनके बीच राजनैतिक विषयपर हुई बातचीतका लिखित सार मेरे पास संशोधनके लिए भेजा था। यह सार मेरे पास उस समय आया था जब मेरे पास उसे देखनेका जरा भी अवकाश न था। इसलिए मैंने कहा कि आपके लिखे मजमूनको देखने की अपेक्षा मैं खुद उसका सार 'यंग इंडिया' में दे दूँगा। उन्होंने मुझे बताया था कि म्युनिसिपल तथा जिला बोर्डोंके चनावोंमें मेरे नामका, अपनेको कांग्रेसी और स्वराज्यवादी बतानेवाले लोग अपने हकमें अनचित उपयोग कर रहे हैं। उन्होंने यह भी कहा कि इसके कारण जनतामें आपका प्रभाव कम हो रहा है। मैंने उनसे कहा कि मुझे अपने प्रभावका कुछ खयाल नहीं है, और यदि लोग मेरे नामका अनुचित उपयोग करते हैं तो मेरे पास इसका कोई इलाज नहीं है। इसपर प्रोफेसर साहबने कहा कि "क्या आप कमसेकम यह भी नहीं कर सकते कि मतदाताओंपर अपना मत प्रकट कर दें कि वे क्या करें?" मैंने उत्तर दिया कि ऐसा तो मैं एकसे अधिक बार कर चुका हूँ। मेरे नजदीक खाली कांग्रेसके नामका बिल्ला लगा होना काफी नहीं है। अगर मैं दूँगा भी तो सिर्फ उन्हीं लोगोंको अपना वोट दूँगा जो वास्तवमें कांग्रेसी और स्वराज्यवादी हैं। इसलिए मैं उन्हीं लोगोंको अपना मत दूँगा जिनको कांग्रेसके सिद्धान्तोंमें विश्वास