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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

किया है। सेवा करनेका सुख ही उनका पुरस्कार है और इसीमें उन्हें सन्तोष है। मनुष्यके दुःखों को दूर करने की दिशामें अपने प्रयत्नोंको दिनोदिन फलता-फूलता देखकर समाज-सेवी व्यक्तिको जो सन्तोष मिलता है, उसका आनन्द तो अनोखा होता है। यह सन्तोष उसकी आत्माको ऐसी शान्ति प्रदान करता है जो और कहीं प्राप्त नहीं हो सकती। अतः आइए, अब हम देखें कि समाज-सेवाके कौन-कौनसे क्षेत्र है और उनमें क्या काम किया जा सकता है। तनिक विचार करते ही हम देखेंगे कि एक बुनियादी समस्या है जो सारे भारतमें व्याप्त है, और वह है बढ़ती हुई घोर कंगाली। इसे सब लोग मानते हैं। प्रशासनिक सेवामें जो अंग्रेज अधिकारी है, उन्होंने भी यह स्वीकार किया है कि भारत में भयंकर गरीबी है और वह बराबर बढ़ती ही जा रही है। उन्होंने यह भी कहा है कि भारतकी कुल आबादीका दसवाँ भाग ऐसा है जिसे मुश्किलसे आधा पेट खाना मिलता है, और उसमें भी सिर्फ बासी रोटी और गन्दा-सन्दा नमक-भर। वे नहीं जानते कि दूध किसे कहते हैं। उन्होंने घी कभी चखातक नहीं है, हाँ, कुछ-एकने शायद कभी छाछ पी हो। उन्हें तेलतक नहीं मिलता। आप लोग कालेजमें पढ़ते हैं और गाँवोंमें शायद ही कभी जाते हों। क्या आपने कभी सोचा है कि आपसे दो कदमकी दूरीपर ऐसे गाँव है जहाँ रहनेवाले स्त्री और पुरुष अत्यन्त दयनीय गरीबीका जीवन व्यतीत कर रहे हैं। उन्हें पेट-भर खानेको भी नहीं मिलता। जैसी तकलीफ वेसहते हैं में यदि उनका वर्णन करूँतो आप शायद मेरी बातका विश्वास नहीं करेंगे, और यदि करें भी, तो भी आप उन कष्टोंकी सही कल्पना नहीं कर पायेंगे। हाँ, यदि मैं अपनी यात्राओंमें आपको अपने साथ ले जाऊँ और सारा देश घुमाऊँ, उन गांवोंका दर्शन कराऊँ जहाँ रेलें नहीं जाती, तब शायद आप समझ सकेंगे कि दाने-दानेको तरसना किसे कहते हैं। तब आप समझेंगे कि वह भयंकर गरीबी जिसके फलस्वरूप चारों ओर गन्दगी, विवशता और अधोगति दिखाई देती है, क्या है। अकसर गांवोंमें ऐसे लोगोंसे मेरी मुलाकात हुई है और मैंने उन्हें ईश्वरके बारेमें कुछ बताने की कोशिश भी की है। मैं आपसे सच कहता है कि ऐसा करने के बाद मैं बहुत लज्जित होकर लौटा हूँ। मुझे अपने-आपसे कहना पड़ा है कि जबतक मैं इन लोगोंको खाने के लिए रोटी नहीं दे सकता तबतक मुझे इनके सामने ईश्वरके सम्बन्धमें भाषण देनेका कोई अधिकार नहीं है। ये लोग नहीं जानते कि ईश्वर किसे कहते हैं। उनके लिए तो रोटी ही भगवान है। उनके चेहरे देखिए। उनकी आँखों में कोई चमक नहीं है। उनसे कामके सम्बन्ध में बात कीजिए तो वे मुस्करा देते है—ना, मुस्कराते नहीं, मानो उपहास करते हैं। उनकी समझमें ही नहीं आता कि उन्हें काम क्यों करना चाहिए। वे बिलकुल निराश हो चुके हैं। उन्होंने जैसे मान लिया है कि उनके भाग्य में भूखों मरना ही बदा है। ऐसी दारुण है उनकी लाचारी। ऐसे लोग दो-चार नहीं है, लाखों-करोड़ोंकी संख्यामें है। इन्हीं लोगोंके बीच समाजसेवा करनेका असीम क्षेत्र आपके सामने खुला पड़ा है। मुझे मालूम हुआ कि इसी छोटा नागपुर जिले में 'हो' नामक एक जाति है। इन लोगोंके सब रीति-रिवाज मैं नहीं जानता। लेकिन मैंने देखा कि इस प्रदेशमें, जहाँ दूध-घीकी नदियाँ बहनी चाहिए,