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१२३. अस्पृश्यता और सरकार

एक पत्र-लेखक लिखते हैं[१] :

इसमें स्पष्टतः विचार-दोष है। युवराजके आगमनके समय अछूतोंके द्वारा उन्हें मानपत्र देनेकी कथा मुझे मालूम है। और यद्यपि मैं यह नहीं जानता कि उक्त आन्दोलनके पीछे सरकारका हाथ है, फिर भी यदि पत्र-लेखकका यह आरोप सही हो तो मुझे इसमें जरा भी आश्चर्य नहीं होगा। इसमें कोई सन्देह नहीं कि सरकारकी नीति हममें फूट डालनेकी है। हमारी फूटमें ही उसकी शक्ति है। हमारी एकतासे तो उसकी नींव खिसक जायेगी। पर यह नीति इस बातका प्रमाण नहीं है कि सरकार हमारे अस्पृश्यता निवारणके काममें दखल दे रही है। उदाहरणके लिए, सरकार खले आम या दबे छिपे अस्पृश्यता दूर करने, अछूतोंके लिए मदरसे चलाने और कुएँ खोदने या अपने कुओंसे उन्हें पानी लेने देनेके हमारे कार्यों में बाधा नहीं डाल रही है। सरकार द्वारा अपने स्वार्थ-साधनके लिए अछूतोंका उपयोग एक बात है और हिन्दुओंके लिए अपने सुधारके रूपमें अस्पृश्यता निवारण बिलकुल दूसरी बात है। हाँ, यदि हम हठपूर्वक हिन्दू धर्मसे इस अस्पृश्यताकी बीमारीका उन्मूलन करने और इस प्रकार अपने कर्तव्यका पालन करनेसे मुँह मोड़ेंगे तो उनका ऐसा उपयोग निश्चित रूपसे होता रहेगा। और यदि हम इस तरह सरकारके मत्थे दोष मढ़ते रहेंगे और अस्पृश्यताको मिटानेके लिए स्वराज्य प्राप्त होनेकी राह देखते रहेंगे तो इस दिशामें हम अपनी पूरी शक्तिके साथ उद्योग नहीं कर सकेंगे।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, २४-९-१९२५
 
  1. पत्र यहाँ नहीं दिया गया है। पत्र लेखकने २७–८–१९२५ के यंग इंडियामें प्रकाशित गांधीजी के इस कथन का उल्लेख किया था—जहाँतक मैं जानता हूँ वह (सरकार) एक भी अवसर पर अस्पृश्यता-निवारणके आड़े नहीं आई।" और कहा था कि "सरकारने चाहे इस सुधार-कार्यमें वास्तविक रुपसे रूकावट नहीं डाली हो, लेकिन वह उसे अपने प्रकृत मार्गसे भटकानेकी कोशिश अवश्य कर रही है।" अपनी बात के समर्थनमें पत्र-लेखकने युवराजके यहाँ आनेके समय सरकारके प्रयत्नोंसे मेरठके चमारों द्वारा दिए गए अभिनन्दनपत्रों तथा मैनीपुरी, इटावा, एटा और कानपुर जिलों में चलाये गये 'आदि हिन्दू आन्दोलन' के उदाहरण दिये गये थे। उक्त आन्दोलनके द्वारा 'अछूतों' को पृथक् प्रतिनिधित्व तथा सरकारी सेवाओं में प्रर्याप्त अनुपातिक माँग करने और सवर्ण हिन्दुओं के खिलाफ बगावत करनेके लिए उसकाया जा रहा था। पत्र-लेखकका कहना था कि इस आन्दोलनके पीछे सरकारी अधिकारियोंका हाथ था।