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१२९. भाषण : खगौलको राष्ट्रीय पाठशालामें[१]

२४ सितम्बर, १९२५

महात्माजोने पाठशालाको सहायता करनेवाले लोगोंको धन्यवाद दिया और आशा व्यक्त की कि अभीतक वे जो सहायता करते रहे हैं, आगे भी करते रहेंगे। उन्होंने कहा, मुझे यह सुनकर दुःख हुआ है कि पाठशालामें एक सौ पच्चीस विद्याथियोंके स्थानपर अब सिर्फ नब्बे विद्यार्थी ही रह गये हैं। इसमें मैं शिक्षकोंका दोष नहीं मानता। कई स्कूल ऐसे हैं जिनमें अत्यन्त उत्तम शिक्षकोंकी पूरी चेष्टाके बावजूद विद्यार्थियोंकी संख्या कम हो गई है। यह तो उन विद्यार्थियों और उनके अभिभावकोंकी मनोवृत्तिका परिणाम है, जिनके लिए शिक्षाका एक-मात्र ध्येय धन कमाना ही है।

मुझे यह जानकर तो और भी अधिक दुःख हुआ है कि विद्यार्थियोंने कताईमें कुछ प्रगति नहीं की है। उसका कारण तो मेरे सामने ही है। इतने निकम्मे तकुए देकर विद्यार्थियों से कताई करते रहने की आशा नहीं की जा सकती। इसके लिए मैं शिक्षकोंको दोषी मानता हूँ। यदि शिक्षक विद्यार्थियोंके मनमें कताईके प्रति प्रेमभाव नहीं भर सके तो वे यह आशा कैसे कर सकते हैं कि विद्यार्थी खुशीसे कताई करते रहेंगे। ऐसा लगता है कि शिक्षक लोगोंको चरखके शास्त्रको कोई ठीक जानकारी नहीं है। उन्हें इसका अध्ययन करना चाहिए। तब उन्हें मालूम होगा कि सैकड़ों चरखे एक साथ चलें तो भी उनसे इतनी कम आवाज होनी चाहिए कि शिक्षककी बात विद्यार्थी सरलतासे सुन सकें। बस बहुत हल्की गुनगुनाहटकी आवाज सुनाई पड़े, ऐसा होना चाहिए।

जहाँतक बुनाईका सम्बन्ध है हम यह बहाना नहीं बना सकते कि बुनकर लोग हाथ-कता सूत लेते नहीं या वे मिलका कता सूत ज्यादा पसन्द करते हैं। आपको मालूम होना चाहिए कि खराब कता सूत हो तो उसे भी दोहरा बटकर उससे किसी न किसी तरहका कपड़ा बुना जा सकता है। इसका इलाज यही है कि अच्छे चरखे काममें लाये जायें और सूत अच्छी तरह काता जाये।

उन्होंने कहा, शिलान्यास करनेसे पहले मैं आपसे फिर कहूँगा कि जबतक इस पाठशालामें कताई और सामान्य भाषाके रूपमें हिन्दीकी शिक्षा दी जाती रहे तथा यह पाठशाला राष्ट्रीय भावनाका पोषण करती रहे तबतक आप इसकी सहायता करते रहें। कांग्रेसने राष्ट्रीय पाठशालाकी जो कल्पना की है, उसकी परिभाषा यही है।

 
  1. बिहार विद्यापीठके अन्तर्गत एक राष्ट्रीय पाठशालाके रूपमें इस हाई स्कूलका उद्घाटन गांधीजीने १९२१ में किया था। यह भाषण उन्होंने इसी स्कूलकी नई स्मारकका शिलान्यास करते हुए दिया था।