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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मौकूफ कर दिया गया किन्तु व्यवस्थापक समितिमें शामिल होने वाले तो चरखेके प्रचारको ही अपना प्रधान कार्य-क्षेत्र मानेंगे।

लेकिन जो अठारह वर्ष से कम उम्रके हों, और जो नियमपूर्वक न कात सकते हों, वे क्या करें? वे पहलेके मुताबिक जितना बन सके उतना सूत दान करें।

अब किसीको रुई नहीं दी जायेगी। किसीकी लल्लो-चप्पों करके उससे कतवानेकी कोई आवश्यकता नहीं है। जो कातनेको धर्म समझ चुके हों वे ही सूत भेजें। रुईका खर्च तो नहीं के बराबर है। 'दमड़ीकी गुड़िया, टका सिर मुड़ाई' वाली कहावत न हो जाये। जो अपनी खशीसे सत दे सके उनसे सतकी भिक्षा माँगनका हेतु यही है कि :

  1. उससे खादी सस्ती होने में मदद मिलेगी।
  2. उसका अर्थ होगा लोग आलस्य छोड़कर अपना बचा हुआ समय प्रजाके कल्याणमें खर्च करें।
  3. धनवानोंका गरीबोंके साथ अपना सीधा सम्बन्ध जुड़ेगा और उन्हें रोज उनकी याद आयेगी।
  4. उससे सब प्रकारके विदेशी कपड़ोंके बहिष्कारमें मदद होगी।
  5. उससे सब यथाशक्ति एक ही प्रकारकी देशसेवामें निश्चित योग दे सकेंगे।
  6. उससे मध्यम वर्ग, जो अभी देहातियोंकी मेहनतपर अपना निर्वाह करता है उसका कुछ बदला दे सकेगा। वह आज स्वेच्छापूर्वक बदले में कुछ नहीं दे रहा है।
  7. मध्यम वर्गके गरीबोंको, जो जीवनके प्रति श्रद्धा ही खो बैठें हैं, स्वयं कातनेसे उनमें उसके प्रति श्रद्धा जागेगी।

ऐसे परिणाम तो तभी निकल सकते है जब मनुष्य अपनी उमंगसे कातेंगे।

इस महान कार्यमें रुपयों की मदद भी चाहिए। मुझे आशा है कि जिन्हें चरखेमें श्रद्धा हो वे सूत तो भेजेंगे ही, दे सकते होंगे तो पैसे की भी मदद करेंगे। यह संस्था अनेक मध्यमवर्गके लोगोंको रोजी देगी। जो आँकड़े मैंने प्रकाशित किये है उनसे मालूम होगा कि आज भी कितने मनुष्य इस प्रवृत्तिसे अपनी आजीविका प्राप्त कर रहे है। यदि यह कार्य व्यापक हो जाये तो यह संस्था हजारोंको रोजी देनेवाली बन जाये। जिसमें करोड़ोंका व्यापार चलता हो उस काममें हजारोंका प्रामाणिकतासे अपनी रोजी कमा लेना कौनसी बड़ी बात है।

अब एक विश्वासकी बात रही। जो लोग समितिमें है वे विश्वासपात्र और कुशल है? मेरी ना किस रायके अनुसार तो वे जरूर ऐसे ही हैं। यह सत्य है कि ऐसे अन्य सेवक भी है जिनका नाम इसमें नहीं है। एक मित्र सूचित करते हैं कि कई तो ऐसे है जिन्हें इसमें होना ही चाहिए था। उन सबकी एक विचारक समिति बनाई जाय। मन इसपर विचार कर देखा है। मुझे वह अनावश्यक प्रतीत होता है। विचार तो थोड़ा करना है; उसपर अमल बहुत करना है। इसलिए अच्छा तो यही है कि अमली कार्य करनेवाली समिति खड़ी करने में थोड़े, लेकिन अपना सारा समय देनेवाले कार्यकर्त्ता मिलें।