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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

छोड़कर अहिंसाकी श्रेष्ठ शक्तिको अपनानेके लिए राजी कर सकनेकी आशा की जा सकती है, लेकिन कायरता शक्ति मात्रके अभाव, अर्थात् अशक्तिकी सूचक है। इसलिए जहाँ बिल्लीके मुकाबले चूहेका सवाल हो, वहाँ चूहेको अहिंसाका पाठ पढ़ाना असम्भव है। चूँकि उसमें बिल्लीके खिलाफ हिंसात्मक तरीकेसे जूझनेकी शक्ति नहीं है, इसलिए वह समझ ही नहीं सकेगा कि अहिंसा क्या चीज हो सकती है। क्या किसी अन्धेसे बदसूरत चीजें न देखने के लिए कहना हास्यास्पद नहीं होगा? १९२१ में मैं और मौलाना शौकत अली बेतिया गये थे। बेतियाके समीपवर्ती एक गाँवके लोगोंने मुझे बताया कि जिस समय पुलिसवाले उनके घरोंको लूट रहे थे और उनकी स्त्रियोंको सता रहे थे, उस समय वे लोग भाग खड़े हुए।[१] उन लोगोंने जब यह कहा कि वे वहाँसे इसलिए भाग खड़े हुए कि मैंने उनसे अहिंसक बनने को कहा था, तो मेरा सिर शर्मसे झुक गया। मैंने उन्हें समझाया कि अहिंसासे मेरा यह अभिप्राय कदापि नहीं है। मैं तो आपसे यह आशा करता हूँ कि जो लोग आपके संरक्षणमें हैं, उनका अनिष्ट करनेके लिए बड़ीसे-बड़ी ताकत भी आगे बढ़े तो आप उसकी राह रोक कर खड़े हो जायें और प्रतिकारमें अपना हाथ उठाये बिना सारी चोट अपने ऊपर झेल लें, अपने प्राणों तककी बलि चढ़ा दें, लेकिन मैदान छोड़कर कभी न भागें। तलवारके जरिये अपनी सम्पत्ति, सम्मान और धर्मकी रक्षा करने में भी मर्दानगी है और अन्यायीको क्षति पहुँचानेकी कोशिश किये बिना इन सबकी रक्षा करना और भी बड़ी मर्दानगी और नकीका काम है। लेकिन अपने कर्तव्य-स्थलसे भाग खड़ा होना, अपनी जान बचानके लिए अपनी जमीन-जायदाद, धर्म या आबरू अन्यायीकी दयापर छोड़ देना नामर्दी है; यह अस्वाभाविक और अपमानजनक है। जो मरना जानते हैं, उन्हें मैं अहिंसाका सन्देश सफलतापूर्वक दे सकता हूँ; लेकिन जो मृत्युसे डरते है, उन्हें नहीं। फिर, मैंने श्रोताओंसे कहा कि मुझ-जैसे लोग, जो विचारकर चुकने के बाद ही लड़नेका विरोध करते हैं, लेकिन साथ ही कोई समझौता करानेमें भी असमर्थ हैं, उन मुसलमानोंका अनुकरण कर सकते हैं, जो प्रथम चार खलीफाओंके समयमें, जब भाई-भाई परस्पर लड़ने लगे थे, गुफाओंमें चले गये थे। आजके युगमें पर्वत-गुफाओंमें जाकर वैसी शान्ति और एकान्त पा सकना लगभग असम्भव है, लेकिन आप अपनी आन्तरिक गुफाओंमें—मनकी गुफाओंमें आश्रय जरूर ले सकते है। परन्तु ऐसा वही लोग कर सकते हैं, जिनके मनमें एक-दूसरेके धर्म और रीति-रिवाजोंके प्रति आदरभाव है।

जाति-बहिष्कारकी भूल

इसके बाद एक प्रान्तीय मारवाड़ी सम्मेलनमें में सामाजिक बहिष्कार और सामाजिक सुधारोंकी आकुल आवश्यकताके विषयमें बोला।[२] मैंने मारवाड़ी भाईयोंको बताया कि जाति-बहिष्कारका अस्त्र केवल उन्हीं लोगोंके हाथमें न्यायसंगत है जो महाजनोंकी श्रेणी में रखे जाने लायक है; और महाजनका मतलब है ऐसा सात्विक पुरुष जो अपने दल या जातिका सच्चा प्रतिनिधि होता है, जो किसीको व्यक्तिगत ईर्ष्याद्वेषके

 
  1. देखिए खण्ड १९, पृष्ठ ९०–९३।
  2. देखिए "भाषण : मारवाड़ी अग्रवाल सभा, भागलपुरमें", १–१०–१९२५।