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संयुक्त प्रान्तके अनुभव

उसके द्वारा आयोजित सभामें जाना पड़ा। मैंने उस अभिनन्दन-पत्रका उत्तर[१] देते हुए कहा कि मैं उस अभिनन्दन-पत्रके योग्य नहीं हूँ, क्योंकि मैंने हिन्दू-सभाके लिए अबतक कुछ भी काम नहीं किया है, उलटे मैंने उसके कुछ कार्योंकी—हालाँकि मित्रभावसे—आलोचना अवश्य की है। मैंने इस अभिनन्दन-पत्रको स्वीकार किया है, क्योंकि हिन्दूधर्मके प्रति मेरी भक्ति किसीसे कम नहीं है। मैंने उनसे यह भी कहा कि धार्मिक आन्दोलनोंसे सच्ची सेवा तभी हो सकती है जब कि वे सम्पूर्ण रूपसे सत्य और अहिंसापर संचालित हों। इसके बाद मुझे सार्वजनिक सभामें ले जाया गया। वहाँ नगरपालिकाकी तरफसे अभिनन्दन-पत्र दिया जानेवाला था। दूसरे दिन मैं अली भाइयोंके साथ हिन्दी साहित्य सम्मेलनकी सभामें[२] गया। सम्मेलनके अध्यक्षका व्याख्यान जो कई अर्थोंमें अच्छा था पर उसमें आग्रहपूर्वक फारसी और अरबीके मूल शब्दोंको नहीं आने दिया गया था। इसलिए मुझे वहाँ भी फिर वे ही बातें दोहरानी पड़ी, जो मैंने लखनऊकी नगरपालिकाके अभिनन्दन-पत्रका उत्तर देते समय कही थीं। कृत्रिम संस्कृतनिष्ठ हिन्दी उसी प्रकार त्याज्य है जैसे कि फारसी मिली हुई क्लिष्ट उर्दू। मैंने हिन्दुस्तानीको इसीलिए एक सामान्य बोलचालको साधारण भाषा माना है, क्योंकि उसे कोई २० करोड़से अधिक लोग समझते है। यह भाषा न तो कृत्रिम लखनवी उर्दू है और न सम्मेलनी हिन्दी। कमसे-कम सम्मेलनसे तो ऐसे ही अभिनन्दन-पत्रकी आशा की जा सकती थी, जिसे साधारण हिन्द या मसलमान कोई भी समझ सकता हो। वह आदमी जो 'ईश्वर' का नाम लेता है, लेकिन खुदा कहनेसे डरता है, अथवा वह जो हर बार 'खुदा' कहता है और 'ईश्वर' का नाम लेनमें पाप समझता है, कोई अच्छा आदमी नहीं हो सकता। मैंने अपने श्रोताओंको यह भी याद दिलाया कि संयुक्त प्रान्तमें हिन्दी प्रचारके लिहाजसे जरूरत केवल इसी बातकी है कि हिन्दी साहित्यको और उन्नत किया जाये, वातावरण ऐसा बने कि उसमें भी कोई रवीन्द्रनाथ पैदा हो। सम्मेलनको तो संयुक्त प्रान्तके बाहर हिन्दुस्तानी भाषाको लोकप्रिय बनानेमें और दूसरी भाषाओंकी पुस्तकें देवनागरी लिपिमें प्रकाशित करने में ही अपना सारा ध्यान लगाना चाहिए। मौलाना मुहम्मद अलीने मेरी पहली बातपर जोर देकर कहा कि यदि हिन्दुस्तानी भाषाको अपने ही प्रान्तमें लोकप्रिय बनानेके लिए कृत्रिम उपायोंकी आवश्यकता हो तो फिर उसे सर्वदेशीय सम्पर्क भाषा बनानेका प्रयत्न छोड़ देना होगा। दोपहरको मौलाना शौकत अलीके सभापतित्वमें एक सभा हुई। उनका व्याख्यान हिन्दू-मुस्लिम एकतापर एक सारगर्भित व्याख्यान था। जिसके अन्तमें उन्होंने लोगोंसे चरखा और खादीको अपनानेका आग्रह किया। उनके बाद मुझसे व्याख्यान देनेके लिए कहा गया। इसलिए मैंने उसी विषयपर व्याख्यान देना शुरू किया जिसकी चर्चा मौलाना साहबने अन्तमें की थी। मैंने श्रोताओंको चरखा और खादीकी आवश्यकता समझाई और यह कहकर अपनी बात समाप्त की कि पटनामें जो निर्णय हआ है उसमें उन्हें सहायता करनी चाहिए। वह निर्णय मेरी समझमें कोई जबर्दस्ती नहीं हुआ

 
  1. देखिए "भाषण : सीतापुर में", १७–१०–१९२५।
  2. देखिए "भाषण : उ॰ प्र॰ हिन्दी सम्मेलन में", १८–१०–१९२५।