और उसके साथ संयुक्त मेरा अन्त्यज-प्रेम और खादी-प्रेम ही है। यह आपको प्रिय हो तो ही आप मुझे अपना मान सकते हैं।
वे [अन्त्यज] यदि सुई चुराते हैं तो हम निहाईकी चोरी करते हैं और बदले में कुछ नहीं देते। आपने अपने लाखों रुपये कहाँसे प्राप्त किये हैं? खड़गपुर, कलकत्ता, जंजीबार, दक्षिण आफ्रिका आदि स्थानोंमें मुझे कच्छी लोगोंने बहुत पैसा दिया किन्तु उन्होंने क्या कोई शर्त रखी थी? तथापि आज कच्छमें आकर मुझे ऐसे कटु वचन सुनने पड़ते है और वह भी करोड़पतियोंसे। मुझे कोई अन्त्यज पैसा दे तो वह कह सकता है कि मेरी कमाईके पैसेको कच्छमें ही लगाना, लेकिन गरीब अन्त्यजोंने तो ऐसी कोई शर्त मुँहसे नहीं निकाली। बेचारे गोकुलदासको आपने ५०० रुपये भेजें; वे आप गिनाते है और कहते हैं कि ये ५०० रुपये और ले लो। इसकी अपेक्षा आप मुझसे यह क्यों नहीं कहते कि हमें आपको कुछ नहीं देना है। मुझे वणिक वृत्ति अच्छी नहीं लगती। बनियोंके कूलमें जन्म लेकर मैंने वणिक विद्याको जाना और उसे तिलांजलि दे दी। मैं काठियावाड़में पला-बढ़ा इसलिए राजनीतिक दाँव-पेंचोंको भी मैंने जाना। किन्तु मैंने उन्हें भी तिलांजलि दे दी। आज तो मैं हरएकसे, वह करोड़पति हो या बादशाह या कोई गरीब, निःसंकोच कहता हूँ कि मेरे साथ बनियापन मत करो, चालाकी मत करो, चतुराई मत दिखाओ; सीधा हिसाब रखो!
मैं तो गायकी रक्षाके लिए चमड़े का धन्धा सीखना चाहता हूँ।[१] जो शिक्षक [आपसे] अपना धन्धा भुलाकर पढ़ने की बात कहता है उससे कहो कि पहले हमें धंन्धा सिखाओ, पढ़ने की बात बादमें करना। अब ऐसा जमाना आ रहा है जब अन्त्यजोंको ही नहीं बल्कि प्रत्येक हिन्दूको गायको बचानेकी खातिर ही चमड़ेका धन्धा सीखना पड़ेगा। धन्धेमें कोई अपमानकी, लज्जाकी बात नहीं है। क्या मैंने पाखाना नहीं उठाया है? मैंने तो आप-जैसे अनेक लोगोंका पाखाना उठाया है, और इसीलिए आज दौलतराम-जैसे नागर ब्राह्मणसे अपना पाखाना उठवाता हूँ। नहीं तो कहाँ ये ब्राह्मण और कहाँ मैं? अगर पाखाना किसीको उठाना चाहिए तो मुझे इनका उठाना चाहिए। लेकिन इन्हें अपना उठाने देता हूँ और लज्जित नहीं होता, क्योंकि आपजैसे अनेक लोगोंका पाखाना उठाते समय मैंने लज्जाका अनुभव नहीं किया और आज भी नहीं करता हूँ। इसमें लज्जाकी कोई बात नहीं है, बल्कि यह हमारी सेवा है। माँ इसीलिए प्रातःस्मरणीय बनती है कि वह हमारा मैला उठाती है। वैसे ही हम भंगीको क्यों न प्रातःस्मरणीय मानें।
यहाँ आकर आज मैं कच्छ के लोगोंको कंजूसीका और निर्दयताका अनुभव कर रहा है। आप 'भगवद्गीता' के श्लोकोंका पाठ करते है, गायत्री मन्त्रका जाप करते नवकार मन्त्र पढते हैं—लेकिन अन्त्यजके लिए आपके हृदयमें स्थान नहीं है। यह हिन्दू धर्म नहीं है, जैन धर्म नहीं है। जो खटमलको बचाने को तैयार होता है वह अन्त्यज रूपों गरीब गायको बचाने के लिए तैयार क्यों नहीं होता? आप कुछ तो
- ↑ अन्त्यज पाठशालाके एक विद्यार्थीने कहा था कि अब मैं चमड़ेका धन्धा नहीं करूँगा; अब तो मैं पढू़ँगा। उस विद्यार्थीके इसी कथनको ध्यानमें रखकर गाँधीजी यह बात कह रहे थे।