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कच्छके संस्मरण—१

गया है। किन्तु मैंने देखा कि आखिर उसका अनर्थ किया गया। भुजमें जो बात शोभास्पद मालूम हुई थी वही और दूसरी जगहोंपर अविवेकयुक्त और निष्ठर प्रतीत हुई। सभी जगहोंपर लगभग दो विभाग हो गये और आखिर स्वागत समिति भी ऐसी ही बन गई मानो वह अस्पृश्यताको धर्म मानती हो। हरएक जगहके अनुभव विचित्र, करुण और हास्यास्पद थे। हास्यास्पद इसलिए कि किसीने भी जानबूझकर अविवेक नहीं किया था। कुछ तो मेरे व्याख्यानोंका अनर्थ हुआ था और कुछ जगह लोगोंने निर्दोष बुद्धिसे ही किन्तु बड़ा अविवेक दिखाया था।

मैं यहाँ अलग-अलग हर जगह मुझे क्या अनुभव हुए, इसका वर्णन नहीं करना चाहता। महादेव देसाईके यात्रा-विवरणमें यथास्थान उनका उल्लेख हुआ ही है। मेरे मनपर कुल मिलाकर जो छाप पड़ी है, इतना ही मैं बताना चाहूँगा और सो भी यह स्पष्ट करने के लिए कि यदि इसपर से कोई यह मान ले कि कच्छमें अस्पश्यताका बहुत जोर है तो यह गलत होगा। यदि स्वागत समितिके प्रधान-प्रधान व्यक्तियोंने कमजोरी न दिखाई होती और भुजमें मैंने जो कार्य किया था उसका दूसरे स्थानों में अनर्थ न किया गया होता तो कच्छके लोगोंकी ऐसी हँसी कभी न होती। कच्छके शहरोंमें भी अन्त्यजोंका मोहल्ला अलग होता है। अंजार और मुन्द्रामें भी मैंने यह देखा। भाटिया समाजके एक सज्जन द्वारा अन्त्यज बालकोंके लिए एक बाल-आश्रम भी चलाया जा रहा है। बाल-आश्रमके पास ही अन्त्यजोंका मोहल्ला है। यहाँके अन्त्यज भी काठियावाड़के अन्त्यजोंके बनिस्बत ज्यादा निडर मालूम हुए। शायद कुछ अधिक बुद्धिमान भी होंगे। बहुतसे अन्त्यज बुनाईका काम करते हैं। भुजमें तो एक अन्त्यज कुटुम्ब बढ़ईका काम करता है। कच्छमें सभाओंमें जिस तादादमें अन्त्यज लोग आते थे, उन्हें उतनी तादादमें और कहीं भी आते हुए मैंने नहीं देखा। सभाओं में अन्त्यजोंसे प्रश्न पूछता था और वे निर्भय होकर बड़े विचारके साथ उसका उत्तर देते थे। वे अपनी तकलीफें भी समझाते थे। माण्डवीके अन्त्यजोंमें से कोई २५ कुनबों अर्थात् १०० आदमियोंने मद्य-मांसादि न खानेकी और खादी पहननेकी प्रतिज्ञा ली थी। अंजारमें भी बहुतसे अन्त्यजोंने एक विशाल सभाके समक्ष मुर्दार मांस न खानेकी और मद्यपान न करनेकी प्रतिज्ञा ली। मुझे कुछ ऐसा भास होता है कि कच्छके अन्त्यजोंमें मद्य-पानका रिवाज कुछ कम है। साधारण जनसमाजमें तो अस्पृश्यता दिखाई भी न देती थी। केवल उच्च मानी जानेवाली कौमें, जैसे ब्राह्मण, बनिये, भाटिया और लोहाना ही अस्पृश्यताका ढोंग करते हुए दिखाई देते थे। ढोंग इसलिए कहता हूँ कि बहुतेरे तो केवल डरके मारे भद्र लोगोंमें जाकर बैठें थे। उनमें से बहुतसे लोगोंने मुझसे यह कहा था कि वे अस्पश्यताको नहीं मानते लेकिन उन्हें जातिसे बहिष्कृत हो जाने का डर है; इसीलिए वे जाहिरमें उसका विरोध नहीं कर सकते। जो जुलूस निकलते थे उनमें अन्त्यज लोग भी शामिल हो जाते थे और इसपर कोई एतराज नहीं करता था। और यह तो मैंने कई जगहोंपर देखा कि वहाँ उच्च वर्णके युवक निर्भय होकर अन्त्यजोंकी सेवा कर रहे है। इसलिए यद्यपि कच्छमें अन्त्यजोंके सम्बन्ध में कुछ दुःखद अनुभव अवश्य हुए हैं फिर भी वहाँ