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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

यदि डार्विनपर विश्वास किया जाये तो हम बन्दरकी सन्तान हैं, और मुझे डर है कि हमने अभीतक अपनी इस मूल स्थितिको नहीं छोड़ा है।

स्वर्गीया डा॰ एना किंग्सफोर्डने अपनी एक पुस्तकमें एक बार लिखा था : "मैं पेरिसकी सड़कोंपर चलती हूँ तो मुझे ऐसा लगता है कि मैं अपने सामने मनुष्य-रूपमें विभिन्न प्रकारके शेर और साँप देख रही हूँ।" वे कहती हैं कि इन जानवरोंका केवल शरीर ही मनुष्यका है, और कुछ नहीं। मनुष्यको अपनी सम्पूर्ण सम्भावनाओंकी ऊँचाईतक उठनेके लिए सर्वथा निर्भय होना आवश्यक है। ऐसा वह अपनेको सिरसे पाँवतक शस्त्र-सज्जित करके नहीं, बल्कि अपनी आन्तरिक शक्तिका विकास करके ही कर सकता है। क्षत्रिय वह है जो खतरेसे सामना होनेपर भाग खड़ा नहीं होता; वह नहीं, जो प्रहारके बदले प्रहार करता है। 'महाभारत' में भी कहा गया है कि क्षमा वीर पुरुषका भूषण है। मैंने सुना है कि स्वर्गीय जनरल गॉर्डनकी यादमें जो प्रतिमा खड़ी की गई है उसमें मूर्तिकारने उनके हाथमें तलवार नहीं, केवल एक छड़ी दी है। इसे एक सुन्दर कला-कृति माना जाता है। यदि में मूर्तिकार हुआ होता और मुझे इस मूर्तिके निर्माणका आदेश मिलता तो मैं जनरल गॉर्डनके हाथमें छड़ी भी नहीं देता। मैं उनकी ऐसी मूर्ति बनाता जिसमें वे अपने दोनों हाथ जोड़े, अपनी छाती आगे किये हुए सम्पूर्ण विनयके साथ दुनियासे यह कहते हुए दिखाई देते कि "यह रहा जनरल गॉर्डन! जो कोई भी अपना बर्छा चलाना चाहे, आये, और मुझपर अपना बर्छा चलाये। मैं सर्वथा अडिग भावसे, प्रतिकारमें अपना हाथ उठाये बिना, उसे सहने के लिए तैयार हूँ।" सैनिकका मेरा यही आदर्श है, और ऐसे सैनिक पृथ्वीपर पैदा हुए हैं, जिये हैं। ईसाई-धर्मने निःसन्देह ऐसे सैनिक पैदा किये हैं और इसी प्रकार हिन्दू धर्म और इस्लामने भी पैदा किये हैं। मेरे विचारमें यह कहना सत्य नहीं है कि इस्लाम तलवारका धर्म है। इतिहास इस बातको प्रमाणित नहीं करता। किन्तु मैं अभी आपसे व्यक्तियोंके उदाहरणोंकी ही चर्चा कर रहा हूँ, और जो बात व्यक्तियोंके सम्बन्धमें सत्य है, वह राष्ट्र या व्यक्तियोंके समूहके सम्बन्धमें भी सत्य हो सकती है। मैं यह स्वीकार करता हूँ कि ऐसा एकाएक नहीं हो सकता। यह तो एक सूदीर्घ विकास-प्रक्रियाके परिणामस्वरूप ही सम्भव हो सकता है। जब पीढ़ी दर-पीढ़ी अनेकानेक महापुरुष हमारी आँखोंके सामने अपने जीवनमें इस सत्यको चरितार्थ करके दिखायेंगे तो उनका प्रभाव हमपर अवश्य पड़ेगा। क्वेकरोंका इतिहास ऐसा ही है। टॉल्स्टॉयकी कृतिमें वर्णित दुखोबर लोगोंका भी इतिहास ऐसा ही है। मुझे नहीं मालूम कि कनाडा जानेके बादसे ये लोग अपने मूल संकल्पका कहाँतक अनुसरण कर रहे हैं, लेकिन यह तो है ही कि उन्होंने एक समग्र समाजके रूपमें अप्रतिरोधका जीवन व्यतीत करके दिखाया है। इसलिए मैं अनुभव करता हूँ कि जबतक हम अपने जीवनमें मानव-भ्रातृत्वके इस बुनियादी तथ्य द्वारा शासित नहीं होते तबतक हम इस पवित्र शब्दकी अवमानना ही करते रहेंगे।

इस समय मैं जिस दृष्टिकोणका खण्डन कर रहा हूँ, वह यह है कि मनुष्य एक वर्गके रूपमें कभी उस अवस्थातक नहीं पहुँच पायेगा जब उसका काम प्रति-प्रहारके