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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हुई, लेकिन जब मुझे यह मालूम हुआ कि यह कालेज सचमुच क्या है तब यह जानकर और भी प्रसन्नता हुई कि महाराजा बहादुरने जो बड़े-बड़े दान दिये हैं, उनमें से एकका परिणाम यह है। उनकी महान् दानशीलताकी बातें तो मैं, जब १९१५ में मुझे महाराजा बहादुरके सम्पर्क में आनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ था, तभीसे जानता हूँ। लेकिन उन्होंने कितने बड़े-बड़े दान दिये हैं सो तो यहाँ आनेपर ही मालूम हुआ। मुझे विश्वस्त सूत्रोंसे ज्ञात हुआ है कि उन्होंने कुल मिलाकर एक करोड़ रुपयेसे अधिक ही दान किया होगा। अबतक मैं ऐसा मानता था और इस बातसे बहुत प्रसन्न भी होता था कि मेरे पारसी मित्रोंकी दानशीलताकी बराबरी दुनियाम कोई नहीं कर सकता, और अब भी मैं समझता है कि जहाँतक सम्पूर्ण पारसी समाजका सम्बन्ध है, मेरा यह खयाल सही ही सिद्ध होगा; लेकिन जहाँतक व्यक्तियोंका सवाल है, मुझे ऐसे किसी पारसी दानवीरका नाम याद नहीं आता जिसका दान कासिम बाजारके महाराजाके दानको मात दे सके। इसलिए जैसा कि मैंने कहा, आपसे मिलकर मुझे दोहरी प्रसन्नता हो रही है।

आपने देशबन्धु स्मारकके लिए जो थैली भेंट की है, उसके लिए मैं आपको धन्यवाद देता हूँ। यह बात तो मुझसे ज्यादा अच्छी तरह आप ही जानते होंगे कि विद्यार्थीजगत देशबन्धु दासका कितना ऋणी है; केवल इसलिए नहीं कि वे विद्यार्थियोंके संरक्षकोंमें से एक थे, सिर्फ इसलिए भी नहीं कि विद्यार्थियोंके लिए उनकी थैलीका मुँह बराबर खुला रहता था, बल्कि इसलिए भी कि वे विद्यार्थियोंको सलाह मशविरा देनेको बराबर तैयार रहते थे और उन्होंने विद्यार्थी-जगतके लिए आत्म-त्याग और देशभक्तिकी जो विरासत छोड़ी है, अगर कोई उसकी बराबरी कर भी ले तो उससे आगे तो निकल ही नहीं पायेगा। इसलिए उनके स्मारकके हेतु यह मोटी रकम देकर आपने अपना कर्तव्य ही निभाया है, और मुझे आशा है कि सारे बंगालके विद्यार्थी आपके इस अच्छे उदाहरणका अनुकरण करेंगे।

आपने मुझसे कुछ सवाल पूछे हैं और आप मुझसे उनके उत्तर चाहते हैं। मैंने इन प्रश्नोंको समझ लिया है। मेरे पास इस समय कुछ ज्यादा बोलनेका वक्त नहीं है, लेकिन इन प्रश्नों के उत्तर देनेसे पहले मैं आपसे थोड़ी देर उन विषयोंकी चर्चा करना चाहता हूँ, जिनका विद्यार्थियोंसे इन प्रश्नोंकी अपेक्षा कहीं अधिक स्थायी सम्बन्ध है और इसलिए जो उनके लिए इन सवालोंकी तुलनामें बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण भी है। मैंने विश्वका जितना भ्रमण किया है, विद्यार्थियोंसे मेरा जितना सम्पर्क रहा है और युवकों और युवतियोंके अधकचरे शिक्षकके रूपमें मुझे जो भी अनुभव प्राप्त हुए हैं, उन सबके आधारपर मैं इसी निष्कर्षपर पहुँचा हूँ कि कोई स्कूल मास्टर या प्रोफेसर जो किताबी ज्ञान सिखाता है वह दरअसल वह ज्ञान नहीं है, जिसे सिखाना उसका कर्तव्य है। आपकी योग्यताकी परख आपके सुन्दर उच्चारण या व्याकरणपर अधिकारके आधारपर नहीं होनी है, और न ही वह आपकी वाग्मिताके आधारपर होनी है। वैसे तो आप कभी कालेजोंमें न आते तब भी कोई हर्ज नहीं था। इसके बिना भी दुनियाको अपनी योग्यताका ठीक परिचय दिया जा सकता है। और भारतके—