पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 28.pdf/८९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
६१
बंग-केसरी

लिए रास्ता बनाया। सर सुरेन्द्रनाथ ऐसी ही विभूतियोंमें से थे। एक समय था, जब छात्र-जगत उनकी पूजा करता था, जब सारी राष्ट्रीय चर्चाओंमें उनका परामर्श अनिवार्य माना जाता था और उनकी वक्तृतासे श्रोतागण मन्त्रमुग्धसे रह जाते थे। कोई बंग-भंगके दिनोंकी उथल-पुथल भरे घटनाक्रमको याद करे और उसके सम्बन्धमें सुरेन्द्रनाथकी अद्वितीय सेवाओंका स्मरण कृतज्ञता और गर्वके साथ न करे, यह असम्भव है। उसी समय उनके कृतज्ञ देशने उन्हें "सरेंडर नॉट"[१] (कभी न झुकनेवाला) की उपाधि दी, और वे सचमुच उपाधिके सुयोग्य पात्र थे। बंग-भंगके समयमें जिन दिनों स्थिति अत्यन्त निराशाजनक हो गई थी, उन दिनों भी वे कभी विचलित नहीं हुए और न निराश हुए। वे पूरी शक्तिसे उस आन्दोलनमें लग गये। उनके उत्साहने सारे बंगालकी रगोंमें नई रवानी ला दी। "सिद्ध सत्य" को असिद्ध कर दिखानेका उनका संकल्प अविचल था। उन्होंने हमें साहस और संकल्पकी जरूरी तालीम दी। उन्होंने सत्तासे भय न खानेकी शिक्षा दी। उनका शिक्षा-सम्बन्धी कार्य भी उनके राजनीतिक कार्योसे कुछ कम महत्त्वपूर्ण नहीं था। रिपन कालेजके माध्यमसे हजारों नौजवान उनके प्रत्यक्ष प्रभावमें आये और उन्होंने समुचित शिक्षा प्राप्त की। उनकी नियमितता ने उन्हें स्वास्थ्य तथा शक्ति दी, बल्कि कह सकते है, भारतके हित-साधनके लिए, उन्हें दीर्घ जीवन दिया। उनकी मानसिक शक्ति अन्ततक अक्षुण्ण बनी रही। सत्तर वर्षकी अवस्थामें उन्होंने पुनः अपने पत्र 'बंगाली' का सम्पादन-भार संभाल लिया था, यह कोई कम साहसकी बात नहीं थी। उन्हें अपनी मानसिक शक्ति और शारीरिक क्षमतापर इतना भरोसा था कि अभी दो ही महीने पूर्व में उनसे बैरकपुरमें मिला था तो उन्होंने कहा था कि मैं ९१ वर्षतक जीनेकी आशा करता हूँ और उससे आगे नहीं जीना चाहता, क्योंकि उसके बाद मैं अपनी मानसिक शक्ति कायम नहीं रख सकूँगा। लेकिन विधिका विधान कुछ और ही था। उसने अचानक ही उन्हें हमसे छीन लिया; क्योंकि किसीने भी उनके इस तरह एकाएक चल बसनेकी आशा नहीं की थी। इस महीने की छः तारीखकी सुबहतक तो उनका ऐसा कोई लक्षण दिखाई नहीं देता था, जिससे प्रकट होता कि उनकी मृत्यु इतनी समीप थी। यद्यपि वे शरीरतः हमारे बीच नहीं रहे, किन्तु देशको उन्होंने जो सेवा की, उसे कभी भुलाया न जा सकेगा। आधुनिक भारतके एक निर्माताके रूपमें उन्हें सदा याद किया जायेगा।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, १३–८–१९२५
 
  1. देखिए खण्ड २७, पृष्ठ ११६–१८।