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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

परवाना लेना जरूरी हो तो उसमें कोई पहचानकी निशानी भी होनी चाहिए। इसलिए जो लोग हस्ताक्षर नहीं कर सकते थे उनके लिए तो अँगूठेका निशान देना ठीक ही था । यह निशान देना काफी भी था, क्योंकि पुलिसकी खोजके अनुसार एक मनु- ष्यके अँगूठेकी रेखाएँ किसी भी दूसरे मनुष्यके अँगूठेकी रेखाओंसे नहीं मिलती। इन रेखाओंकी आकृति और संख्याके वर्गीकरणसे इस विज्ञानका ज्ञाता दो मनुष्योंके अँगूठोंके निशानों को एक या दो मिनिट देखकर ही बता सकता है कि वे निशान दो भिन्न- भिन्न मनुष्योंके अँगूठोंके हैं। अतः फोटो देनेकी बात मुझे तनिक भी ठीक नहीं लगती थी; और मुसलमानोंकी दृष्टिसे तो उसमें धार्मिक आपत्ति भी थी ।

अन्तमें सरकार और हिन्दुस्तानियोंकी बातचीतका परिणाम यह निकला कि प्रत्येक हिन्दुस्तानीको अपना पुराना परवाना लौटा देना चाहिए और नये प्रकारका परवाना ले लेना चाहिए एवं नये आनेवाले हिन्दुस्तानियोंको भी ऐसे ही नये प्रकारके परवाने दिये जाने चाहिए। हिन्दुस्तानी ऐसा करनेके लिए कानूनन बिलकुल बंधे नहीं थे; किन्तु उन्होंने इस आशासे अपनी मर्जीसे ये परवाने ले लिये कि ऐसा करनेसे उनपर नये अंकुश नहीं लगाये जायेंगे। वे इससे यह सिद्ध कर सकेंगे कि हिन्दुस्तानी कौम धोखाधड़ीसे किसी को नहीं लाना चाहती और चाहती है कि शान्ति रक्षा अध्या- देशका प्रयोग नये आनेवाले हिन्दुस्तानियोंको सतानेमें न किया जाये। कहा जा सकता है कि लगभग सभी हिन्दुस्तानियोंने नये प्रकारके ये परवाने ले लिये । यह कोई मामूली बात नहीं थी। जिस कामको करना कौमके लिए कानूनमें लाजमी नहीं था, उस कामको कौमने संगठित रूपसे और बड़ी शीघ्रतासे पूरा करके दिखा दिया । यह कौमकी सचाई, व्यवहार-कुशलता, उदारता, समझदारी और नम्रताकी निशानी थी । कौमने इस कामसे यह भी सिद्ध कर दिया था कि हिन्दुस्तानी ट्रान्सवालके किसी भी कानूनको किसी भी तरह भंग करना नहीं चाहते। हिन्दुस्तानियोंने यह मान लिया था कि यदि वे सरकारके प्रति इस प्रकार सौजन्यपूर्ण व्यवहार करेंगे तो सरकार भी उनकी रक्षा करेगी, उनको सम्मान देगी और अन्य अधिकार भी देगी। ट्रान्सवालकी अंग्रेज सरकारने इस सौजन्यके महान् कार्यका बदला किस तरह दिया यह हम अगले प्रकरणमें देख सकेंगे ।

अध्याय ११

सैजन्यका बदला - खूनी कानून

परवानोंका रद्दोबदल होते-होते सन् १९०६ आ गया। मैं सन् १९०३ ट्रान्स- वाल वापस पहुँचा था, और मैंने उस वर्षके लगभग मध्यमें जोहानिसबर्ग में अपना दफ्तर खोला था । इस तरह मेरे ये दो साल एशियाई कार्यालयके आक्रमणोंको रोकने- में लगे । इस सबके बाद लोगोंने यह मान लिया था कि परवानोंका प्रश्न इस तरह तय हो गया है, और इससे सरकारको पूरा सन्तोष मिल जायगा और हिन्दुस्तानियों-

१. देखिए खण्ड ५, पृष्ठ ३९२-३ ।

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