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दक्षिण आफ्रिकाके सत्याग्रहका इतिहास

को भी कुछ चैन मिलेगा। किन्तु हिन्दुस्तानी कौमके भाग्य में चैन कहाँ ? मैं श्री लायनेल कर्टिसका परिचय पिछले प्रकरणमें दे चुका हूँ। उनको ऐसा लगा कि हिन्दु- स्तानियोंने नये परवाने ले लिये, इतनेसे गोरोंका हेतु सिद्ध नहीं होता। उनका मत यह था कि बड़े-बड़े कार्योंका पारस्परिक समझौतेसे निपट जाना पर्याप्त नहीं है। उनके पीछे कानूनका जोर होना ही चाहिए, उनका तभी कुछ महत्त्व हो सकता है और उनमें निहित सिद्धान्तोंकी रक्षा तभी की जा सकती है। श्री कर्टिस चाहते थे कि हिन्दुस्तानियोंपर नियन्त्रण रखने के लिए कोई एसा कार्य किया जाना चाहिए जिसका प्रभाव समस्त दक्षिण आफ्रिकापर पड़े और अन्तमें जिसका अनुकरण अन्य ब्रिटिश उपनिवेश भी करें। उनका कहना था कि जबतक दक्षिण आफ्रिकाका एक भी द्वार हिन्दुस्तानियोंके लिए खुला रहेगा तबतक ट्रान्सवाल सुरक्षित नहीं माना जा सकता। इसके अतिरिक्त उनकी दृष्टिमें सरकार और हिन्दुस्तानी कौमके बीचके समझौतेसे हिन्दुस्तानी कौमकी प्रतिष्ठा बढ़ी थी। वे यह नहीं चाहते थे कि उसकी प्रतिष्ठा बढ़े, बल्कि चाहते थे कि वह घटे। उन्हें हिन्दुस्तानियोंकी सहमतिकी आवश्यकता नहीं थी । वे तो यह चाहते थे कि हिन्दुस्तानियोंपर कोई बाह्य प्रतिबन्ध लगाकर उन्हें कानूनके आतंकसे कँपा दिया जाये । इसलिए उन्होंने एशियाई कानूनका मसविदा बनाया और सरकारको उसे पास करनेकी सलाह देते हुए यह मत व्यक्त किया कि जबतक इस मसविदेके मुताबिक कानून नहीं बनाया जाता तबतक हिन्दुस्तानी ट्रान्सवालमें चोरी- छिपे जाते ही रहेंगे और वर्तमान कानूनमें इस तरह आये हुए लोगोंको बाहर निका- लनेका कोई भी साधन नहीं है। सरकारको श्री कर्टिसके ये तर्क जँचे । उसे उनका मसविदा भी अच्छा लगा और उसने उसके मुताबिक विधानसभामें प्रस्तुत करनेके उद्देश्यसे ट्रान्सवालके सरकारी गजटमें एक एशियाई कानून संशोधक विधेयक प्रकाशित किया ।

इस विधेयककी तफसील लिखने से पहले यह आवश्यक है कि मैं बीचमें हुई एक महत्त्वपूर्ण घटनाका वर्णन थोड़ेसे शब्दोंमें कर दूं। चूँकि मैं सत्याग्रहका प्रवर्तक हूँ, इसलिए पाठकोंके लिए मेरी स्थितिको पूरी तरह समझ लेना बहुत आवश्यक है। जब ट्रान्सवालमें हिन्दुस्तानियोंपर इस प्रकार प्रतिबन्ध लगानेका प्रयत्न किया जा रहा था तभी नेटालमें जुलू लोगोंने विद्रोह किया। जो-कुछ हुआ उसे विद्रोह कहा जा सकता है या नहीं, इस सम्बन्धमें मुझे तब भी शंका थी और अब भी है; फिर भी नेटालमें यह घटना इसी नामसे प्रसिद्ध है। इस विद्रोहको दबाने के लिए नेटालके बहुतसे गोरे स्वयंसेवकोंके रूपमें सेनामें भरती हुए। मैं भी नेटालवासी माना जाता था; इसलिए मुझे लगा कि इस लड़ाईमें मुझे भी सेवा करनी चाहिए। निदान मैंने हिन्दुस्तानी कौमकी मंजूरी लेकर सरकारके सम्मुख यह प्रस्ताव रखा कि हम घाय- लोंकी सेवा-शुश्रूषाके लिए एक टुकड़ी बनाना चाहते हैं । ' मेरा यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया। इसलिए मैंने अपना ट्रान्सवालका मकान छोड़ दिया और बाल- बच्चोंको नेटालमें फीनिक्स फार्मपर जहाँ 'इंडियन ओपीनियन' नामका अखबार छपता

१. देखिए खण्ड ५, पृष्ठ ३०२ ।

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