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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

था और मेरे संगी-साथी रहते थे, भेज दिया। किन्तु वहाँका अपना दफ्तर मैंने बन्द नहीं किया; क्योंकि मैं जानता था कि मुझे अधिक समयतक यह कार्य नहीं करना पड़ेगा।

मैं बीस-पच्चीस लोगोंकी एक छोटी-सी टुकड़ी बनाकर सेनामें चला गया। इस छोटी-सी टुकड़ीमें भी लगभग सभी जातियोंके हिन्दुस्तानी सम्मिलित थे। इस टुकड़ीने एक महीने सेवा की। इस महीने-भरमें हमें जो काम मिला मैंने उसके लिए सदा ईश्वरका अनुग्रह माना है। मैंने देखा कि जो हब्शी घायल हुए थे उनको जब हम उठाते, तभी वे उठाये जाते अन्यथा उसी तरह पड़े तड़पते रहते थे। इन घायलोंके घावोंकी मरहम पट्टीमें किसी गोरेकी सहायता मिलना सम्भव नहीं था। हमें एक सर्जन डाक्टर सेवेजकी अधीनतामें काम करना होता था। यह डाक्टर बहुत ही दयालु था। घायलोंको उठाकर अस्पतालमें पहुँचा देनेके बाद उनकी सार-संभाल करना हमारे क्षेत्रसे बाहरका काम था, किन्तु अपनी दृष्टिसे तो हमें जो भी काम दिया जाये वह सभी हमारे क्षेत्रमें आता है, यही समझकर हम वहाँ गये थे। इसलिए इस सज्जन डाक्टरने हमसे कहा, इन लोगोंकी सार-संभालके लिए कोई गोरा नहीं मिलता। मैं इसके लिए आपको बाध्य कर सकूँ इतना मुझे अधिकार नहीं हैं, इसलिए यदि आप दयाके इस कामको अपने हाथमें ले लें तो मैं आपका उपकार मानूंगा। हमने इस कामको सहर्ष स्वीकार कर लिया। कुछ हब्शियोंके घाव पाँच-पाँच और छः-छः दिनसे नहीं घोये-पोंछे गये थे; इसलिए उनमें से दुर्गन्ध उठ रही थी। इन सबको साफ करनेका काम हमारे जिम्मे आया और वह हमें बहुत भाया । हब्शी हमसे बात तो नहीं कर सकते थे, किन्तु हम उनकी चेष्टासे और उनकी आँखोंसे यह देख सकते थे कि वे ऐसा अनुभव करते हैं मानो हमें ईश्वरने ही उनकी सहायता करनेके लिए वहाँ भेजा हो । इस कार्यमें हमें कभी-कभी दिनमें चालीस-चालीस मीलका सफर करना पड़ा।

हमारा काम एक महीनेमें समाप्त हो गया। अधिकारियोंको उससे सन्तोष हुआ। गवर्नरने हमें धन्यवादका पत्र भेजा। हमारी इस टुकड़ीमें तीन गुजराती थे । उनको सार्जेन्टका पद दिया गया था। गुजराती भाई उनका नाम जानकर अवश्य ही प्रसन्न होंगे। इनके नाम थे उमियाशंकर शेलत, सुरेन्द्रराय मेढ़ और हरिशंकर जोशी । ये तीनों व्यक्ति शरीरसे सुगठित थे और उन्होंने अत्यन्त कठिन परिश्रम किया। मुझे दूसरे हिन्दुस्तानियोंके नाम इस समय याद नहीं आ रहे हैं। किन्तु इतना ठीक-ठीक याद है कि उनमें एक पठान भी था। मुझे यह भी याद है कि हम भी उसके बराबर बोझ उठाकर उतनी ही लम्बी मंजिल तय कर सकते हैं, यह देखकर उसे आश्चर्य होता था ।

मेरे मनमें दो विचार धीरे-धीरे रूप धारण कर रहे थे। मैं कह सकता हूँ कि ये विचार इस टुकड़ीमें काम करते हुए पूरी तरह पक गये। एक विचार तो यह था कि जो मनुष्य सेवाधर्मको मुख्य मानता है उसे ब्रह्मचर्यका पालन अवश्य करना चाहिए

१. विस्तृत विवरणके लिए देखिए खण्ड ५, पृष्ठ ३७८-८३।

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