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दक्षिण आफ्रिकाके सत्याग्रहका इतिहास

अन्तर मानती है। जो मनुष्य अपने सामान्य निश्चयमें परिवर्तन करता है उसको ऐसा करनेमें लज्जा नहीं आती; किन्तु यदि वह ईश्वरकी शपथ लेकर प्रतिज्ञा करके फिर उसे भंग करता है तो उसको स्वयं लज्जा आती है, समाज भी उसे धिक्कारता और पापी मानता है। यह बात इस हदतक बद्धमूल हो गई है कि कानूनमें भी कसम खाकर कही हुई बातके झूठ सिद्ध होनेपर कसम खानेवाला मनुष्य अपराधी माना जाता है और उसको कड़ी सजा दी जाती है।

मैं प्रतिज्ञाएँ लेता रहा हूँ और उसके शुभ फलोंके रसको भी मैं जानता हूँ । इसलिए उक्त प्रतिज्ञाकी बात सोचकर मैं भयभीत हो गया। मैंने एक क्षणमें ही उसके परिणाम समझ लिये। मेरी इस घबराहटसे मुझमें उत्साह पैदा हुआ । यद्यपि मैं सभामें प्रतिज्ञा करने अथवा लोगोंसे प्रतिज्ञा करवानेके विचारसे नहीं गया था, फिर भी मुझे सेठ हाजी हवीवका सुझाव बहुत पसन्द आया। किन्तु उसके साथ ही मुझे यह भी लगा कि मुझे लोगोंको इसके जो परिणाम हो सकते हैं, उनसे आगाह कर देना चाहिए। मुझे उनको प्रतिज्ञाका अर्थ स्पष्ट रूपसे समझा देना चाहिए और उसके बाद लोग प्रतिज्ञा करें तभी उसे स्वागतके योग्य मानना चाहिए। और यदि वे उसके बाद प्रतिज्ञा न कर सकें तो मुझे समझ लेना चाहिए कि लोग अभी अन्तिम कसौटीपर कसे जानेके लिए तैयार नहीं है। इसलिए मैंने अध्यक्षसे सेठ हाजी हबीवके कथनका मर्म लोगोंको समझानेकी अनुमति मांगी। उन्होंने मुझे अनुमति दे दी और मैं बोलनेके लिए खड़ा हुआ। मैंने जो-कुछ कहा उसे मैं स्मृति से नीचे दे रहा हूँ :

“मैं सभाको यह बात समझा देना चाहता हूँ कि हमने आजतक जो प्रस्ताव स्वीकार किये हैं और जिस तरीकेसे स्वीकार किये हैं, उन प्रस्तावों और उस तरीकेमें तथा इस प्रस्ताव और इसके तरीकेमें भारी अन्तर है। यह प्रस्ताव अति गम्भीर है। क्योंकि, दक्षिण आफ्रिकामें हमारा अस्तित्व तभी रह सकता है जब हम इसपर पूरी तरह अमल करें। प्रस्तावको स्वीकार करनेकी जो रीति हमारे भाईने सुझाई है वह जितनी गम्भीर है, उतनी ही नवीन है। मैं खुद इस रीतिसे प्रस्ताव करवाने के विचारसे यहां नहीं आया था। इस यशके अधिकारी अकेले सेठ हाजी हवीव हैं, और इसकी जिम्मेदारी भी उन्हींपर है। मैं उन्हें मुबारकबाद देता हूँ। उनका सुझाव मुझे बहुत रुचा है। पर यदि आप उस सुझावको स्वीकार कर लेते हैं तो उसकी जिम्मे- दारीमें आप भी साझी हो जायेंगे। यह जिम्मेदारी क्या है, इसे आपको समझना हो चाहिए, और भारतीय समाजके सलाहकार और सेवकके नाते इसे पूरी तरहसे समझा देना मेरा धर्म है।

"हम सब एक ही सिरजनहारको माननेवाले हैं। उसे मुसलमान भले ही खुदा- के नाम से पुकारें, हिन्दू भले ही ईश्वरके नामसे भजें, पर वह है एक ही स्वरूप । उसे साक्षी करके, उसको बीचमें रखकर हम कोई प्रतिज्ञा करें या शपथ लें, यह कोई छोटी-मोटी बात नहीं है। इस तरहसे शपथ लेनेके बाद भी यदि हम बदलते हैं तो समाजके, जगतके और खुदाके प्रति गुनहगार होंगे। मैं तो मानता हूँ कि सावधानीसे, शुद्ध बुद्धिसे मनुष्य कोई प्रतिज्ञा करे और बादमें तोड़ दे तो वह अपनी इन्सानियत,

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