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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अथवा मनुष्यता खो बैठता है। और जैसे पारा चढ़ा हुआ तांबेका सिक्का रुपया नहीं है, यह मालूम होते ही सिर्फ सिक्का ही मूल्य रहित नहीं होता, बल्कि उसका मालिक भी दण्डका पात्र हो जाता है, वसे ही झूठी शपथ लेनेवाला अपनी प्रतिष्ठा ही नहीं खोता वह लोक और परलोक दोनोंमें दण्डका पात्र हो जाता है। सेठ हाजी हबीब हमें ऐसी ही शपथ लेने की बात सुझा रहे हैं। इस सभामें एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं जो बालक या नासमझ माना जा सके। आप सब प्रौढ़ हैं, दुनिया देखे हुए हैं; आपमें से अधिकांश तो प्रतिनिधि हैं और थोड़ी बहुत जिम्मेदारी भी भोग चुके हैं । अतः इस सभामें एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जो यह कहकर छूट जाये कि मैंने बिना समझे प्रतिज्ञा की थी ।

"मैं जानता हूँ कि प्रतिज्ञाएँ, व्रत आदि किसी गम्भीर प्रसंगपर ही लिये जाते हैं, और लिये भी जाने चाहिए। उठते-बैठते प्रतिज्ञा करनेवाला निश्चय ही प्रतिज्ञा भंग कर सकता है। परन्तु यदि हमारे सामाजिक जीवनमें इस देशमें प्रतिज्ञाके योग्य किसी अवसरकी कल्पना मैं कर सकता हूँ तो वह अवसर यही है। बहुत सावधानी से और डर-डरकर कदम रखना बुद्धिमानी है। किन्तु डर और सावधानीकी भी सीमा होती है। उस सीमापर हम पहुँच चुके हैं। सरकारने सभ्यताकी मर्यादा तोड़ दी है। उसने हमारे चारों ओर जब दावानल सुलगा रखा है तब भी यदि हम बलिदानकी पुकार न करें और आगे-पीछे देखते रहें तो हम नालायक और नामर्द साबित होंगे। अतः यह शपथ लेनेका अवसर है, इसमें तनिक भी शंका नहीं। पर यह शपथ लेनेकी हममें शक्ति है या नहीं, यह तो हरएकको अपने लिए सोचना होगा। ऐसे प्रस्ताव बहुमतसे पास नहीं किये जाते। जितने लोग शपथ लेंगे उतने ही उससे बँधते हैं। ऐसी शपथ दिखावेके लिए नहीं ली जाती; उसका यहाँकी सरकार, बड़ी सरकार, या भारत सरकारपर क्या असर होगा, इसका कोई तनिक भी खयाल न करे। हरएकको अपने हृदयपर हाथ रखकर उसे ही टटोलना है । और तब यदि अन्तरात्मा कहती है कि हममें शपथ लेनेकी शक्ति है, तभी शपथ ली जाये, और वही शपथ फलेगी ।

"अब दो शब्द परिणामके विषयमें। अच्छीसे-अच्छी आशा बाँधकर तो यह कह सकते हैं कि यदि सब लोग शपथपर कायम रहें और भारतीय समाजका बड़ा हिस्सा शपथ ले सके तो यह अध्यादेश एक तो पास नहीं होगा, और यदि पास हो गया तो तुरन्त रद हुए बिना नहीं रहेगा । समाजको अधिक कष्ट न सहना पड़ेगा। हो सकता है कि कुछ भी कष्ट न सहना पड़े। पर शपथ लेनेवालोंका धर्म जैसे एक ओर श्रद्धा- पूर्वक आशा रखना है, वैसे ही दूसरी ओर नितान्त आशारहित होकर शपथ लेनेको तैयार होना है। इसलिए मैं चाहता हूँ कि हमारी लड़ाईमें जो कड़वेसे-कड़वे परिणाम सामने आ सकते हैं, उनकी तसवीर इस सभाके सामने खींच दूं। मान लीजिए कि यहाँ उपस्थित हम सब लोग शपथ लेते हैं। हमारी संख्या अधिकसे-अधिक तीन हजार होगी। यह भी हो सकता है कि बाकीके दस हजार शपथ न लें। शुरूमें तो हमारी हँसी होनी है। इसके अलावा इतनी चेतावनी दे देनेपर भी यह बिलकुल सम्भव है कि शपथ

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