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दक्षिण आफ्रिकाके सत्याग्रहका इतिहास

न होकर सेवाकी दृष्टिसे होना चाहिए और खर्चमें भी कमी करनी थी। मेरे ये तीनों सुझाव स्वीकार कर लिये गये। लोगोंसे प्रतिज्ञापर हस्ताक्षर कराये गये। बहुतोंने हस्ताक्षर किये। किन्तु मैंने यह स्पष्ट देखा कि जिन लोगोंने सभामें प्रतिज्ञा ली थी उनमें से भी कुछ-एक हस्ताक्षर देनेमें संकोच कर रहे थे। एक बार प्रतिज्ञा लेनेके बाद उसको पचास बार दोहरानेमें भी संकोच नहीं होना चाहिए। तिसपर भी यह अनुभव किसे नहीं हुआ होगा कि लोग विचारपूर्वक प्रतिज्ञा लेनेके बाद भी उसके सम्बन्धमें कमजोर पड़ जाते हैं अथवा मौखिक रूपसे ली गई प्रतिज्ञाको लिखित रूप देते हुए आगा-पीछा करने लगते हैं ? खर्चके लिए जितने पैसेका अन्दाज किया था उतना इकट्ठा हो गया। सबसे अधिक कठिनाई प्रतिनिधि चुननेमें आई। प्रतिनिधियों में मेरा नाम तो था ही। किन्तु मेरे साथ कौन जाये, यह तय करनेमें समितिने बहुत वक्त लिया। इसे सोचनेके लिए कई बैठकें हुईं और सभा-समितियोंमें जो-जो बुराइयाँ दिखाई देती हैं उनका पूरा-पूरा अनुभव हुआ। कोई कहता था, 'यदि आप अकेले जायेंगे तो सबका समाधान हो जायेगा।' किन्तु मैंने इस बातको माननेसे बिलकुल ही इनकार कर दिया। सामान्यतः यह कहा जा सकता है कि दक्षिण आफ्रिकामे हिन्दू-मुस्लिम समस्या थी ही नहीं। किन्तु दोनों जातियोंके मनोंमें तनिक भी अन्तर नहीं था, यह बात दावेसे नहीं कही जा सकती। उनके मनोंका यह अन्तर कभी विषाक्त रूपमें प्रकट नहीं हुआ, इसका कारण कुछ हदतक दक्षिण आफ्रिकाकी विचित्र स्थितियाँ भले ही रही हों, किन्तु इसका वास्तविक और निश्चित कारण तो यह था कि नेतागण एकनिष्ठ होकर और शुद्ध हृदयसे अपने कर्त्तव्यका पालन करते और कौमको रास्ता दिखाते थे। मेरी सलाह यह थी कि मेरे साथ एक मुसलमान सज्जन अवश्य हों और दोसे अधिक प्रतिनिधियोंकी आवश्यकता नहीं है। किन्तु हिन्दुओंकी ओरसे तुरन्त ही यह कहा गया कि आप तो पूरे समाजके प्रतिनिधि माने जाते हैं, इसलिए शिष्टमण्डलमें हिन्दुओंका भी एक प्रतिनिधि होना चाहिए। साथ ही कुछने यह भी कहा कि एक प्रतिनिधि कोंकणी मुसलमानोंका, एक मेमनोंका, एक पाटीदारोंका और एक अनाविलोंका होना चाहिए। इस प्रकार अनेक जातियोंकी ओरसे दावे किये गये; किन्तु अन्तमें सबने समझसे काम लिया और सर्वसम्मतिसे दो ही प्रतिनिधि श्री हाजी वजीर अली और मैं चुने गये ।

हाजी वजीर अली आधे मलायी माने जा सकते थे। उनके पिता हिन्दुस्तानी और माता मलायी थीं। उनकी मातृभाषा डच कही जा सकती थी; किन्तु उन्होंने अंग्रेजी भी इतनी पढ़ ली थी कि वे डच और अंग्रेजी दोनों भाषाएँ भली-भाँति बोल सकते थे। उन्हें अंग्रेजीमें भाषण देनेमें कहीं भी रुकना नहीं पड़ता था। उन्होंने अखबारोंको पत्र लिखनेका अभ्यास भी कर लिया था। वे ट्रान्सवाल ब्रिटिश भारतीय संघके सदस्य थे और बहुत दिनोंसे सार्वजनिक कार्योंमें भाग लेते आये थे। वे हिन्दु- स्तानी भी धाराप्रवाह बोल सकते थे।

१. देखिए खण्ड ५, पृष्ठ ४५९ ।

२. मूल गुजराती में यहाँ यह वावप हैं: उन्होंने एक मलायी महिलासे विवाह किया था और उससे उनके कई बच्चे हुए।

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