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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हम इंग्लैंडमें इस प्रकार लगभग छः सप्ताह बिताकर दक्षिण आफ्रिका वापस रवाना हुए। जब हम मदीरा पहुँचे तो हमें श्री रिचका तार मिला कि "लॉर्ड एलगिनकी घोषणाके अनुसार मन्त्रिमण्डलने सम्राट्को ट्रान्सवालके एशियाई कानूनको अस्वीकार कर देनेकी सलाह दी है। " हमारी प्रसन्नताका तो पूछना ही क्या था ? मंदीरासे केपटाउन पहुँचनेमें १४-१५ दिन लगते हैं। हमने ये दिन बड़ी प्रसन्नतामें निकाले और हम भविष्यमें शेष कष्टोंको दूर करनेके सम्बन्धमें शेखचिल्ली-जैसे हवाई किले बनाते रहे। किन्तु दैवकी गति न्यारी है। हमारे ये हवाई किले किस प्रकार ढह गये, इसकी चर्चा हम अगले प्रकरणमें करेंगे ।

किन्तु इस प्रकरणको समाप्त करनेसे पहले हम एक दो पुनीत संस्मरण दिये बिना नहीं रह सकते। मुझे इतना तो कहना ही चाहिए कि हमने इंग्लैंडमें अपना एक क्षण भी व्यर्थ नहीं खोया । हमें बहुतसे गश्तीपत्र भेजने पड़े। यह काम कोई एक आदमी नहीं कर सकता था। उसमें बड़ी सहायताकी आवश्यकता थी । पैसा खर्च करनेसे बहुत कुछ सहायता मिल सकती है; किन्तु मेरा चालीस सालका अनुभव बताता है कि इस सहायताकी तुलना स्वेच्छासे दी गई शुद्ध सहायतासे नहीं की जा सकती। सौभाग्यसे हमें ऐसी सहायता करनेवाले लोग भी वहाँ मिल गये। वहाँ पढ़ने- वाले बहुतसे हिन्दुस्तानी युवक हमारे पास आ जाते और उनमें से अनेक सुबह-शाम इनाम अथवा नामकी आशा किये बिना हमारे कार्यमें सहायता देते । चिट्ठियोंपर पते लिखना, चिट्ठियोंकी नकलें करना, उनपर टिकट लगाना और उनको डाकमें छोड़ना; उनमें से किसीने भी ऐसे किसी भी कामको अपनी प्रतिष्ठाके अयोग्य बताकर करने से इनकार किया हो ऐसा मुझे याद नहीं आता। किन्तु इन सबसे भी बढ़कर हमारा एक अंग्रेज मित्र था जो हमें दक्षिण आफ्रिकामें मिला था। वह हिन्दुस्तानमें रह चुका था। उसका नाम सीमंड्स था । अंग्रेजीमें एक कहावत है कि प्रभु, जिसे चाहता है उसे जल्दी अपने पास बुला लेता है । काल देवता इस 'परदुःखभंजन' अंग्रेजको भरे यौवनमें उठा ले गये। मैंने उसके लिए परदुःखभंजन विशेषणका प्रयोग एक विशेष कारणसे किया है। इस सज्जन व्यक्तिने १८९७में बम्बईमें प्लेगसे पीड़ित हिन्दुस्तानियोंकी सहायता उनके बीच निर्भय घूम-घूमकर की थी। छूतरोगसे पीड़ित रोगियोंकी सहायता करते हुए मृत्युका लेशमात्र भी भय न करना उसका स्वभाव बन गया था। उसमें जातिद्वेष या रंगद्वेष रंचमात्र भी न था । उसका स्वभाव अत्यन्त स्वतन्त्र था । उसका एक सिद्धान्त यह था कि सत्य सदा अल्प मतके साथ होता है। इस सिद्धान्तको माननेके कारण ही वह जोहानिसबर्गमें मेरी ओर आकर्षित हुआ था और विनोदमें बहुत बार यह कहा करता था, आप जिस दिन बहुमतमें हो जायेंगे, आप निश्चित समझें कि मैं आपके साथ नहीं रहूँगा, क्योंकि मेरा विश्वास है कि बहुमतके हाथमें सत्य भी असत्यके रूपमें बदल जाता है। वह बहुपठित व्यक्ति था । वह जोहानिसबर्गके एक करोड़पति सर जॉर्ज फेरारका निजी और विश्वस्त सचिव था। वह आशु लिपिमें बेजोड़ था । जब हम इंग्लैंड पहुँचे तब वह अकस्मात् हमारे

१. देखिए खण्ड ६, पृष्ठ २७५ ।

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