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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

बनाये गये नियमों और उपनियमोंमें कोई छोटा-मोटा परिवर्तन कराना हो तो उसके सम्बन्धमें कौमकी आपत्तिको जनरल स्मट्स ध्यानपूर्वक सुनेंगे' श्री हॉस्केनने इस सन्देशको सुनाने के बाद कहा, 'मैं भी आपको यह सलाह देता हूँ कि आप जनरल बोथाकी इस सलाहको मान लें। मैं जानता हूँ कि ट्रान्सवालकी सरकार इस कानूनके सम्बन्धमें दृढ़ है। उसका विरोध करना दीवारसे सिर मारना है। मैं चाहता हूँ कि आपकी जाति इसका विरोध करके तबाह न हो और व्यर्थ कष्ट न भोगे ।' मन इस भाषणका शब्दश: अनुवाद लोगोंको सुना दिया और अपनी ओरसे भी उनको सावधान किया। फिर श्री हॉस्केन तालियोंकी गड़गड़ाहटके बीच वहाँसे विदा हो गये।

अब हिन्दुस्तानियोंके भाषण आरम्भ हुए। इस प्रकरणके, और सच कहें तो इस इतिहासके, नायकका परिचय देना तो अभी शेष ही रहता है। जो वक्ता बोलनके लिए खड़े हुए उनमें एक स्वर्गीय अहमद मुहम्मद काछलिया थे। मैं उनको एक मुवक्किल और दुभाषियेके रूपमें ही जानता था । वे अभीतक सार्वजनिक कार्योंमें आगे बढ़कर भाग नहीं लेते थे। उनका अंग्रेजी भाषाका ज्ञान कामचलाऊ था, किन्तु उन्होंने अनुभवसे उसे इतना बढ़ा लिया था कि जब वे अपने मित्रोंको अंग्रेज वकीलोंके पास ले जाते तो दुभाषियेका काम स्वयं ही करते। दुभाषियेका काम उनका धन्धा नहीं था। वे उसे मित्र होने के नाते ही करते थे। वे पहले फेरी लगाकर कपड़े बेचते थे किन्तु बादमें उन्होंने अपने भाईके साझमें एक छोटा-सा व्यापार कर लिया था। वे सूरती मैमन थे और सूरत जिलेमें जन्मे थे । सूरती मैमनोंमें उनका बहुत सम्मान था। पहले उनका गुजरातीका ज्ञान भी साधारण ही था, किन्तु उन्होंने उसे अनुभवसे बढ़ा लिया था। किन्तु उनकी बुद्धि इतनी कुशाग्र थी कि वे किसी भी प्रश्नको बहुत आसानीसे समझ लेते थे। वे मुकदमोंकी पेचीदगियोंको इस तरह सुलझा सकते थे कि मैं भी बहुत बार आश्चर्यमें पड़ जाता । वे वकीलोंसे कानूनी बहस करते हुए भी झिझकते नहीं थे और उनकी दलीलोंपर वकीलोंको भी विचार करना पड़ता था।

साहस और निष्ठामें उनसे बढ़कर कोई व्यक्ति मुझे न दक्षिण आफ्रिकामें मिला और न हिन्दुस्तानमें। उन्होंने कौमकी खातिर अपने सर्वस्वकी आहुति दे दी। मुझे उनके साथ सम्पर्कमें आनेके जितने अवसर मिले उनमें मैंने उन्हें सदा अपनी बातका घनी पाया। वे सच्चे मुसलमान थे । और सुरती मैमनोंकी मस्जिदके एक न्यासी थे, किन्तु साथ ही वे हिन्दुओं और मुसलमानोंके प्रति समदृष्टि रखते थे। मुझे ऐसा एक भी प्रसंग याद नहीं आता जब उन्होंने साम्प्रदायिक दृष्टि अपनाकर अनुचित रूपसे हिन्दुओंके विरुद्ध मुसलमानोंका पक्ष लिया हो। वे बिलकुल निडर और निष्पक्ष थे, इस लिए जब आवश्यकता होती तब हिन्दुओं और मुसलमानों, दोनोंके दोष बतानेमें उन्हें तनिक भी संकोच नहीं होता था। उनकी सरलता और निरभिमानिता अनुकरणीय थी । वर्षोंके गाढ़े परिचयके बाद उनके बारेमें मेरा यह दृढ़ मत बना है कि हमारे समाजको स्वर्गीय अहमद मुहम्मद काछलिया-जैसा आदमी मिलना मुश्किल है।

१. देखिए खण्ड ७, पृष्ठ १३९-४१ और पृष्ठ १५१-५२ ।

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