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दक्षिण अफ्रीकाके सत्याग्रह इतिहास

उन्हें बहुत परेशान नहीं करती थी। यदि कभी परेशान करती भी तो स्वयंसेवक उसे सह लेते थे। स्वयंसेवकोंने इस कार्य में हास्य-रसका मिश्रण भी किया था। उसमें कभी-कभी पुलिस भी भाग लेती थी। स्वयंसेवकोंने अपना समय हँसी-खुशीसे बितानेके लिए कई प्रकारके मनोरंजनके सूत्र-साधन खोज लिये थे। एक बार वे सार्वजनिक यातायातके कानूनके अन्तर्गत रास्ते में रुकावट डालनेके जुर्ममें भी गिरफ्तार किये गये। सत्याग्रहमें असहयोग सम्मिलित नहीं था, इसलिए अदालतोंमें बचाव करनेकी मनाही नहीं थी। फिर भी यह सामान्य नियम तो रखा ही गया था कि सार्वजनिक धन बचानेकी दृष्टिसे वकील रखकर बचाव न किया जाये। इन स्वयंसेवकोंको अदालतने निरपराध कहकर छोड़ दिया। इससे उनके उत्साहमें और भी वृद्धि हुई।

इस प्रकार यद्यपि प्रकटतः स्वयंसेवकोंकी ओरसे परवाना लेनेके इच्छुक हिन्दुस्तानियोंके प्रति कोई अशिष्टता या जबर्दस्ती नहीं की जाती थी, फिर भी मुझे यह तो स्वीकार करना ही होगा कि इस लड़ाईमें एक ऐसा दल भी उत्पन्न हो गया था जिसका काम स्वयंसेवक बने बिना गुप्त रीतिसे परवाना लेनेवाले लोगोंको मारपीटकी धमकियाँ देना और अन्य प्रकारसे हानि पहुँचाना था। यह एक दुःखद बात थी । इसका पता ज्यों ही चला त्यों ही इसको रोकनेके कड़े उपाय किये गये । फलतः धमकियां देना लगभग बन्द हो गया; किन्तु इस बुराईकी जड़ सर्वथा नहीं कटी। ऐसी धमकियाँ थोड़ी-बहुत तो दी ही जाती रही और मैंने देखा कि उस हद तक आन्दोलनको हानि पहुँची। जिन्हें भय लगता था उन्होंने तुरन्त सरकारसे संरक्षण मांगा और सरकारने उनको संरक्षण दिया। इस प्रकार कीमके बीचमें विकार आया और दुर्बलोंकी दुर्बलता बढ़ी। कुछ लोगोंके मनमें दुर्बलता बढ़नेके परिणामस्वरूप परस्पर वैमनस्यमें भी वृद्धि हुई, क्योंकि दुर्बलका स्वभाव बदला लेना होता ही है।

इन धमकियोंका तो नहीं, किन्तु दो बातोंका अर्थात् लोकमतके दबाव और स्वयंसेवकों के उपस्थित रहने से परवाना लेनेवालेका नाम समाजपर प्रकट होनेके भयका प्रभाव बहुत गहरा हुआ । मुझे ऐसा हिन्दुस्तानी तो कोई भी नहीं मिला जो खूनी कानूनको मानना अच्छा समझता हो । जो लोग परवाना लेने गये वे केवल कष्ट अथवा हानि सहन करनेकी अपनी असमर्थताके कारण गये और इस कारण उन्होंने लज्जाका अनुभव भी किया ।

एक ओर लोक-लाज थी और दूसरी ओर अपने व्यापारको हानि पहुँचनेका भय । कुछ प्रमुख हिन्दुस्तानियोंने इन दोनों कठिनाइयोंमें से निकलनेका एक मार्ग खोजा। उन्होंने एशियाई दफ्तरसे मिलकर यह व्यवस्था की कि उस दफ्तरका कोई अधिकारी एक निजी मकानमें और वह भी रातको ९ या १० बजेके बाद आकर उनको परवाने दे दे। उन्होंने यह सोचा था कि ऐसा करनेसे कुछ समयतक तो लोगोंको यह पता ही न चलेगा कि हमने खूनी कानून मान लिया है और चूंकि वे लोग समाजमें काफी प्रतिष्ठित थे इसलिए उन्होंने यह भी माना था कि कुछ समय बाद दूसरे लोग भी उस कानूनको मान लेंगे, अधिक कुछ न होगा तो इससे कुछ दिन तो लज्जित होनेकी सम्भावना टल जायेगी और बादमें यह बात प्रकट हो भी गई तो उसकी क्या चिन्ता ।

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