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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

गिरमिटियोंने ही बढ़ाई थी, यह बात पाठक अन्तम देखेंगे। इस लड़ाईको जीतनेमें सबसे बड़ा हिस्सा उन्हींका था। रामसुन्दरका दोष यह था कि वह गिरमिटकी अवधि पूरी किये बिना भाग आया था ।

किन्तु मैंने रामसुन्दरका यह हाल उसके दोष बतानेकी दृष्टिसे नहीं लिखा। किन्तु इस इतिहास में जो तत्त्व छिपा है उसे स्पष्ट करनेकी दृष्टिसे ही इसे सम्मिलित किया है। प्रत्येक शुद्ध आन्दोलनके नेताओंका कर्त्तव्य है कि वे अपने आन्दोलनमें शुद्ध लोगोंको ही सम्मिलित करें। किन्तु भरपूर सावधानी रखनेपर भी अशुद्ध लोग उसमें आने से नहीं रुक सकते। ऐसा होनेपर भी यदि आन्दोलनके संचालक निडर और सच्चे हों तो उसमें अनजाने अशुद्ध लोगोंके घुस जानेसे अन्ततः हानि नहीं पहुँचती। रामसुन्दर पण्डितका असली रूप प्रकट हो गया तब उसका मूल्य नहीं रहा। उस बेचारेके नामसे पण्डित शब्द हट गया और वह केवल रामसुन्दर रह गया । हिन्दुस्तानी समाज उसे भूल गया, किन्तु उसकी गिरफ्तारीसे आन्दोलनको बल तो मिला ही । आन्दोलनके निमित्त भोगी हुई कैद बट्टे खातेमें नहीं गई, उसकी जेल-यात्रासे आन्दोलनको जो बल मिला, वह स्थायी रहा और उसके उदाहरणसे दूसरे निर्बल लोग इस आन्दोलनमें से अपने-आप चुपचाप खिसक गये। ऐसी निर्बलताकी कुछ दूसरे लोगोंकी मिसालें भी दिखाई दीं। उनका नाम-धाम देनेका मेरा कोई विचार नहीं है, क्योंकि उससे कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता । पाठकोंको कौमको निर्बलता और सबलताका ध्यान भी बना रहे, इसलिए इतना कह देना आवश्यक है कि इस आन्दोलनमें रामसुन्दर एक ही नहीं था, बल्कि कई थे और इन सब रामसुन्दरोंने आन्दोलनकी सेवा ही की ।


पाठक रामसुन्दरके दोष न देखें । इस संसारमें सभी मनुष्य अपूर्ण हैं। किसीकी अपूर्णता विशेष रूपसे दिखाई दे जाती है तो हम उसकी ओर उंगली उठाते हैं। वस्तुतः देखें तो ऐसा करना भूल है। रामसुन्दर जानबूझकर निर्बल नहीं बना। मनुष्य अपने स्वभावकी दशा बदल सकता है और उसको अपने वशमें रख सकता है, किन्तु उसको पूर्णतः ऐसा कौन कर सकता है ? इस संसारके रचयिताने उसे इतनी स्वतन्त्रता दी ही नहीं है। यदि बाघ अपने चमड़ेकी विचित्रताको बदल सकता हो तो मनुष्य भी अपने स्वभावकी विचित्रताको बदल सकता है। रामसुन्दरको भाग जाने पर भी अपनी निर्बलतापर कितना पश्चात्ताप हुआ होगा, यह बात हम कैसे जान सकते हैं ? क्या उसका भाग जाना ही उसके पश्चात्तापका एक प्रबल प्रमाण नहीं माना जा सकता ? यदि वह निर्लज्ज होता तो उसे भागनेकी क्या आवश्यकता थी ? वह परवाना लेकर खूनी कानूनके अंतर्गत सदा जेलसे बाहर रह सकता था; इतना ही नहीं, बल्कि यदि वह चाहता तो एशियाई दफ्तरका दलाल बनकर दूसरे लोगोंको भ्रमित कर सकता था और सरकार द्वारा मान भी पा सकता था। इसके बजाय हम इस घटनाका अर्थ ऐसा उदार क्यों न करें कि उसने कौमको अपनी निर्बलता बतानेमें लजानेके कारण अपना मुंह छिपा लिया और अपने इस कार्यसे भी हिन्दुस्तानी समाजकी सेवा ही की ?

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