पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 29.pdf/१३५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१०९
दक्षिण आफ्रिकाके सत्याग्रहका इतिहास

अध्याय १९

'इंडियन ओपिनियन'

हमें सत्याग्रहकी लड़ाईके बाहरी और भीतरी सभी साधन पाठकोंके सम्मुख रखने हैं, इसलिए 'इंडियन ओपिनियन' नामके साप्ताहिक अखबारका - वह दक्षिण आफ्रिकामें इस समय भी निकल रहा है, परिचय करा देना आवश्यक है। दक्षिण आफ्रिकामें पहला हिन्दुस्तानी छापाखाना खोलनेका श्रेय मदनजीत व्यावहारिक नामके गुजराती सज्जन- को है। उन्होंने इस छापेखानेको कुछ सालतक मुसीबतें सहकर चलाया। उसके बाद उन्होंने एक अखबार निकालनेका विचार किया। उन्होंने इस सम्बन्धमें स्व० मनसुख- लाल नाजरकी और मेरी सलाह ली । अखबार डर्बनसे निकाला गया।' मनसुखलाल नाजर अवैतनिक सम्पादक नियुक्त किये गये। इस अखबारमें प्रारम्भसे ही घाटा आने लगा । अन्तमें यह निश्चय किया गया कि छापेखाने में काम करनेवाले लोगोंको भागीदार अथवा भागीदार जैसा बना लिया जाये, उनको एक फार्म खरीद कर उसमें बसाया जाये और फार्मसे ही अखबार निकाला जाये। यह फार्म डर्बनसे १३ मील दूर एक सुन्दर पहाड़ीपर है। वहांसे सबसे अधिक पास रेलवेका जो फीनिक्स नामका स्टेशन है वह तीन मील दूर है। अखबारका नाम 'इंडियन ओपिनियन' है और वह प्रारम्भसे ही अंग्रेजी, गुजराती, तमिल, और हिन्दीमें प्रकाशित होता था। चूँकि तमिल और हिन्दीका बोझ हर तरहसे भारी लगता था तथा तमिल और हिन्दीके ऐसे लेखक जो फार्मपर रह सकें, नहीं मिलते थे और उनके लेखों पर नियन्त्रण रखना सम्भव न था; इसलिए ये दोनों विभाग बादमें बन्द कर दिये गये और अंग्रेजी तथा गुजरातीके विभाग चालू रखे गये। जब सत्याग्रहकी लड़ाई शुरू हुई तब यह अखबार इसी रूपमें निकलता था। उक्त संस्थामें गुजराती, तमिल, उत्तर भारतीय और अंग्रेज सभी रहते थे। मनसुखलाल नाजरकी असमय मृत्यु हो जानेपर एक अंग्रेज मित्र हरबर्ट किचिन सम्पादक बनाये गये । हेनरी पोलक तो बहुत वर्ष सम्पादक रहे। जब मैं और श्री पोलक जेलमें थे तब कुछ समयतक उसका सम्पादन पादरी सज्जन जोजेक डोकने किया। अखबारकी मारफत कौमको प्रति सप्ताह पूरी खबरें देनेका काम भली-भांति किया जा सकता था। अंग्रेजी विभागकी मारफत गुजराती न जाननेवाले हिन्दुस्तानियों को थोड़ा बहुत लड़ाईका शिक्षण मिलता और हिन्दुस्तान, इंग्लैंड और दक्षिण आफ्रिकाके अंग्रेजोंके लिए तो 'इंडियन ओपिनियन' साप्ताहिक समाचार पत्रका काम देता । मेरी मान्यता है कि जिस लड़ाईका आधार आन्तरिक बल हो वह लड़ाई अखबारके बिना चलाई जा सकती है, किन्तु साथ ही मेरा अनुभव यह भी है कि 'इंडियन ओपिनियन' के होनेसे हमें कौमको आसानीसे शिक्षा दे सकने और संसारमें जहां-जहां हिन्दुस्तानी रहते थे वहाँ-वहाँ हमारी हलचलोंकी खबरें भेजते रहने में आसानी हुई।

१. १९०३ में; देखिए खण्ड ३, पृष्ठ ३३६ । अक्तूबर १९०४ से गांधीजीने इसे अपने हाथ में ले लिया; देखिए खण्ड ४, पृष्ठ ३५८-५९ ।

२. फरवरी १९०६ में। देखिए खण्ड ५, पृष्ठ १८२ और १९१ ।

Gandhi Heritage Portal