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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

यह सब काम कदाचित् किसी दूसरी रीतिसे नहीं किये जा सकते थे। इसलिए यह निश्चित रूपसे कहा जा सकता है कि लड़ाईके साधनोंमें 'इंडियन ओपिनियन' भी एक बहुत उपयोगी और सबल साधन था।

जैसे-जैसे कोममें लड़ते-लड़ते और अनुभव करते-करते परिवर्तन हुए वैसे-वैसे 'इंडियन ओपिनियन' में भी परिवर्तन हुए। इस पत्रमें पहले विज्ञापन लिये जाते थे और छापेखानेमें छपाईका बाहरका फुटकर काम भी किया जाता था। मैंने देखा कि हमारे सर्वोत्तम कार्यकर्त्ता इन दोनों कामोंमें खप जाते हैं। विज्ञापन लेने ही हों तो कौन-से विज्ञापन लिये जायें और कौन-से न लिये जायें यह तय करनेमें सदा धर्म-संकट उपस्थित होता है। फिर किसी अनुचित विज्ञापनको न लेनेका निर्णय करते हुए यदि विज्ञापन कौमके किसी नेताका हो तो उसका मन न दुखे इस खयालसे अनुचित होनेपर भी उसको लेनेकी बात सोचनी पड़ती थी। विज्ञापन प्राप्त करनेमें और उनका पैसा इकट्ठा करनेमें अच्छे-अच्छे कार्यकर्त्ताओंका समय जाता और लोगोंकी खुशामद करनी पड़ती सो अलग। यह भी विचार आया कि यदि अखबारको धन कमानेके लिए नहीं, बल्कि जातिकी सेवाके लिए चलाया जा रहा हो तो यह सेवा जबर्दस्ती नहीं की जानी चाहिए, बल्कि जातिकी इच्छा हो तभी की जानी चाहिए। जाति अखबार द्वारा सेवा चाहती है या नहीं इसका निश्चित प्रमाण तो यही माना जा सकता है कि जातिके लोग उचित संख्या में ग्राहक बनकर उसका खर्च उठा लें। फिर यह भी सोचा कि अखबारको चलाने के लिए उसका माहवारी खर्च निकालने की खातिर कुछ व्यापारियोंको सेवाभावके नामसे विज्ञापन देनेके लिए समझानेकी अपेक्षा जातिके सामान्य वर्गको अखबार खरीदनेका कर्त्तव्य समझानेमें लुभानेवाले और लुभाये जानेवाले दोनों ही पक्षोंको अधिक अच्छी शिक्षा मिल सकती है। यह विचार निश्चित होते ही कार्यान्वित किया गया। परिणाम यह हुआ कि जो लोग विज्ञापन आदिकी झंझटमें पड़े थे, वे अखबारको सुन्दर बनानेके कार्यमें जुट गये। जातिने तुरन्त समझ लिया कि 'इंडियन ओपिनियन' उसकी अपनी मिल्कियत है और उसको चलानेकी जिम्मेदारी भी उसीकी है। हम सभी कार्यकर्ता निश्चिन्त हो गये । हमें इतनी ही चिन्ता करनी रह गई कि यदि जाति अखबारकी मांग करती रहे तो उसको निकालनेमें पूरी मेहनत करें। हमें किसीका हाथ पकड़कर 'इंडियन ओपिनियन' खरीदनेके लिए कहनेमें भी संकोच न रहा। इतना ही नहीं, बल्कि हम सभीको उसे खरीदनेके लिए कहना अपना कर्तव्य मानने लगे। 'इंडियन ओपिनियन' का आन्तरिक बल और रूप भी बदल गया और वह पत्र एक महान् शक्ति बन गया। जहां सामान्यतः उसके १२०० से १५०० तक ग्राहक होते थे, वहां अब उनकी संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगी। अखबारका मूल्य बढ़ाना पड़ा था, फिर भी जब आन्दोलनने उग्र रूप लिया तब उसकी ग्राहक संख्या ३५०० तक बढ़ गई थी। 'इंडियन ओपिनियन' के पाठकोंकी संख्या तो २०,००० तक रही होगी। इनमें ३००० से अधिक प्रतियोंका खरीदकर पढ़ा जाना पत्रका आश्चर्यजनक प्रचार माना जा सकता है। जातिने इस अखबारको इतना अपना लिया था कि यदि निश्चित

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