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दक्षिण आफ्रिकाके सत्याग्रहका इतिहास

सत्याग्रही कैदियोंकी संख्या १०० से अधिक हो गई। थोड़े बहुत कैदी तो हर रोज ही आते थे। इससे अखबारके बिना ही हमें खबरें अखबार की तरह मिल जाती थीं। ये भाई रोजकी खबरें लाते। जब बहुत अधिक सत्याग्रही गिरफ्तार होने लगे तब या तो मजिस्ट्रेट सादी कैदको सजाएँ देते-देते थक गये या उनसे सरकारने ही सत्याग्रहियों के बारेमें यह निर्देश दे दिया था, इसलिए सत्याग्रहियों को कड़ी कैदकी सजा दी जाने लगी। मेरा खयाल यह है कि मजिस्ट्रेटोंको सरकारका ही यह निर्देश 'मिला था। मुझे आज भी यह लगता है कि इस सम्बन्ध में कौमका अनुमान ठीक • ही था, क्योंकि जिन शुरूआतके मुकदमों में सादी कैद की सजा दी गई थी उनके बाद इस लड़ाईमें, और बादमें समय-समयपर लड़ी जानेवाली अन्य लड़ाइयोंमें भी, किसी भी पुरुषको तो क्या, किसी स्त्रीको भी ट्रान्सवाल या नेटालकी किसी भी अदालतसे सादी कैद की सजा नहीं दी गई। जबतक सभीको एक ही प्रकारका निर्देश या आदेश न दिया जाये तबतक मजिस्ट्रेट हर बार हर पुरुष और स्त्रीको कड़ी कैदकी ही सजा दे, ऐसा केवल आकस्मिक संयोगवश हुआ हो तो वह लगभग चमत्कार ही माना जायेगा ।

इस जेल में सादी कँदके कैदियोंको खानेमें सुबहके वक्त मक्काके आटेका दलिया दिया जाता था। उसमें नमक नहीं डाला जाता था, किन्तु हर कैदीको थोड़ा नमक अलग दे दिया जाता था । बारह बजे दोपहर के खाने में ये चीजें होतीं - भात, नमक, आधी छटांक घी और पावभर डबल रोटी। शामको मक्काके आटेका दलिया और उसके साथ शाक, मुख्यतः आलू दिया जाता था । आलू छोटे होते तो दो दिये जाते और बड़े होते तो एक दिया जाता। इस खानेसे किसीका पेट न भरता । भातका माँड अलग नहीं किया जाता था । हमने जेलके डाक्टरसे कुछ मसाला माँगा । हमने उनको बताया कि मसाला हिन्दुस्तानकी जेलोंमें भी दिया जाता है। उसने दो टूक जवाब दिया, यह हिन्दुस्तान नहीं है और कैदीके लिए स्वाद नहीं होता, इसलिए मसाला नहीं दिया जा सकता। ऊपर बताये गये खानमें ऐसी कोई ' चीज नहीं होती थी जिसमें मांसपेशियोंको बनानेका गुण हो, इसलिए हमने दालोंकी माँग की। डाक्टरने कहा कि कैदियोंको डाक्टरी आधारपर दलीलें पेश नहीं करनी चाहिए। फिर खाने में स्नायु बनानेवाली चीजें दी जाती हैं, क्योंकि सप्ताह में दो वार शामको मक्काके दलियेके बदले उबली हुई मटर मिलती है। यदि मनुष्यका जठर सप्ताहमें अथवा दो सप्ताहमें पृथक्-पृथक् गुणोंकी खानेकी वस्तुएँ विभिन्न समयोंपर लेकर उनका सत्त्व खींच सके तो डाक्टरकी यह दलील ठीक थी। असल बात तो यह थी कि डाक्टरका विचार किसी भी प्रकार हमारी अनुकूलताका ध्यान रखनेका नहीं था । सुपरिन्टेन्डेन्टने हमारी अपने हाथसे खाना पकानेकी माँग स्वीकार कर ली । हमने थम्बी नायडूको अपना रसोइया चुना। उन्हें रसोईमें बहुत झगड़ा करना पड़ता । सब्जियाँ वजनमें कम मिलतीं तो वे पूरी मांगते; और दूसरी वस्तुओंके बारेमें भी ऐसा ही करते । सप्ताह में दो दिन, जब सब्जियाँ मिलती थीं हम खाना दो बार और बाकी दिन एक बार बनाते थे', चूँकि हमें सिर्फ अपना दोपहरका खाना अपने-

१. मूल गुजरातीमें यह वाक्य नहीं है।

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