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दक्षिण आफ्रिकाके सत्याग्रहका इतिहास

इसमें दुःख नहीं होगा। यदि मैं उस समय भी बिलकुल ही गुस्सा न करूँ और मनमें हत्यारेके प्रति द्वेष न रखूं तो मैं जानता हूँ कि इससे मेरा भविष्य सुधरेगा और बादमें मेरा हत्यारा भी समझ जायेगा कि मैं बिलकुल निर्दोष था । "

उक्त प्रश्न क्यों किये गये इसका कारण बताना आवश्यक है। जिन लोगोंने कानूनको मान लिया था, यद्यपि उनके प्रति कोई भी वैरभाव नहीं रखा जाता था, फिर भी इस सम्बन्धमें स्पष्ट और कठोर शब्दोंमें बहुत कुछ कहा और 'इंडियन ओपि- नियन' में लिखा गया था। इससे कानूनके आगे झुकनेवालोंका जीवन अप्रिय तो अवश्य ही बना था। उन्होंने कभी खयालतक नहीं किया था कि जातिका बड़ा भाग अडिग रह सकेगा और इतना बल दिखायेगा कि समझौता होनेका अवसर आ जायेगा। किन्तु जब १५० से अधिक सत्याग्रही जेलमें पहुँच गये और समझौतेकी बात चलने लगी तब कानूनके आगे झुकनेवालोंको बहुत बुरा लगा और उनमें कुछ लोग ऐसे भी निकले जो चाहते थे कि समझौता न होने पाये और यदि हो तो टूट जाये ।

ट्रान्सवालमें रहनेवाले पठानोंकी संख्या बहुत कम थी। मैं सोचता हूँ, वे कुल मिलाकर ५० से अधिक नहीं होंगे। उनमें से अधिकतर लोग लड़ाईमें आये हुए सैनिक थे और जैसे लड़ाईके वक्त आये हुए बहुतसे गोरे दक्षिण आफ्रिकामें बस गये थे वैसे ही उस लड़ाईमें आये हुए पठान और दूसरे हिन्दुस्तानी वहाँ बस गये थे। उनमें से कुछ मेरे मुवक्किल भी हो गये थे और उनसे मेरा दूसरी तरहसे भी परिचय हो गया था। वे बहुत भोले होते हैं; शूरवीर तो होते ही हैं। मारना और मरना उनकी दृष्टिमें बहुत ही सामान्य बातें हैं। यदि उन्हें किसीपर रोष आ जाता है तो वे मारपीट कर डालते हैं - उनकी भाषामें कहें तो उसकी पीठ गरम कर देते हैं और उसे कभी- कभी जानसे भी मार देते हैं। वे चाहे जिसके साथ ऐसा कर सकते हैं। उनका सगा भाई हो तो उससे भी वे ऐसा ही व्यवहार करते हैं। यहाँ पठानोंकी संख्या इतनी कम है, फिर भी उनमें तकरार हो जाती है और वे एक-दूसरेपर हमला कर डालते हैं। ऐसी घटनाओंमें कई बार मुझे बीच-बचाव करना पड़ता था। इसमें भी यदि कभी दगाबाजीकी कोई घटना हो तब तो वे अपना गुस्सा रोक ही नहीं सकते थे। उनके पास न्याय प्राप्त करनेका केवल यही एक तरीका था । इस आन्दोलनमें पठानोंने पूरा भाग लिया था। कोई भी पठान इस कानूनके आगे नहीं झुका था । उनको बहकाना आसान था । दसों अँगुलियोंके निशानोंके बारेमें उनमें गलतफहमी होनेकी बात बिलकुल समझी जा सकती थी। इसके जरिये उनको भड़काना जरा भी मुश्किल नहीं था । यदि मैंने रिश्वत नहीं ली तो मैं दसों अँगुलियोंके निशान लेनेकी बात क्यों कहता हूँ, इतना कहना पठानोंमें शक पैदा करनेके लिए काफी था ।

इसके अलावा ट्रान्सवालमें एक दूसरा दल भी था। इस दलमें वे लोग थे जो ट्रान्सवालमें या तो बिना परवाने लिये गुप्त रूपसे आये थे या दूसरोंको बिना पर- वाने अथवा जाली परवानोंके बलपर गुप्त रूपसे यहां लाते थे। इस दलका स्वार्थ समझौता न होनेमें था। जबतक आन्दोलन चलता था तबतक किसीको भी परवाना दिखानेकी जरूरत न थी और इससे यह दल बेखटके अपना काम चला पाता था ।

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