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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

फिर जबतक आन्दोलन चलता था तबतक ऐसे लोग जेलमें जानेसे आसानीसे बच सकते थे । इसलिए आन्दोलन लम्बा खिंचे तो उसे ये लोग अपने लिए सम्पन्नताका काल मानते थे । इस प्रकार इन लोगों द्वारा भी पठानोंका समझौतेके विरुद्ध भड़काया जाना सम्भव था । अब पाठक समझ सकते हैं कि पठान एकाएक क्यों भड़क गये थे ।

किन्तु आधी रातके वक्त कही गई इन तीखी बातोंका प्रभाव सभामें बिलकुल नहीं हुआ। मैंने सभाका मत माँगा । अध्यक्ष और दूसरे नेता मजबूत थे । अध्यक्षने इस बातचीत के बाद भाषण देते हुए समझौतेकी व्याख्या की और उसको माननेकी आवश्यकता पर बल देकर सभाका मत माँगा । सभामें उपस्थित दो-चार पठानोंके सिवाय बाकी सब लोगोंने एकमतसे समझौतेका समर्थन किया।

मैं रातको दो या तीन बजे घर पहुँचा । मैं सो तो कैसे सकता था; मुझे तो जल्दी उठकर दूसरे लोगोंको रिहा करानेके लिए जेलपर जाना था। मैं सात बजे जेल जा पहुँचा । सुपरिटेंडेंटको टेलीफोनसे हुक्म मिल ही चुका था और वह मेरी राह देख रहा था । एक घंटे के भीतर-भीतर सभी सत्याग्रही कैदी छोड़ दिये गये । अध्यक्ष और दूसरे हिन्दुस्तानी उन सबका स्वागत करनेके लिए आये । जेलसे हमारा मजमा पैदल सभा-भूमिमें गया। उसके बाद सभा हुई। वह दिन और उससे अगले दो-चार दिन दावतोंमें और लोगोंको समझाने-बुझाने में गये ।

ज्यों-ज्यों दिन बीतते गये त्यों-त्यों जहाँ लोग एक ओर समझौतेका मर्म समझते गये वहाँ दूसरी ओर उनमें उसके सम्बन्धमें भ्रम भी बढ़ता गया। लोगोंके भड़कने के कारणोंकी चर्चा ऊपर की जा चुकी है। इनके अलावा जनरल स्मट्सको लिखे गये पत्र में भी भ्रमका कारण मौजूद था । इसलिए जो अनेक प्रकारके तर्क उठाये जाते थे उनका उत्तर देनेमें मुझे आन्दोलनके समय होनेवाले कष्टकी अपेक्षा बहुत अधिक हुआ। लड़ाई में तो जिन्हें हम अपना दुश्मन मानते हैं उनके साथ व्यवहार करनेमें ही कठिनाई खड़ी होती है, किन्तु मेरा अनुभव यह है कि हम इन कठिनाइयोंको सदा सहज ही दूर कर सकते हैं। इसमें पारस्परिक झगड़े और अविश्वास या तो होते ही नहीं या होते हैं तो बहुत कम होते हैं । किन्तु लड़ाई समाप्त होनेपर पारस्परिक विरोध आदि, जो सामने आई हुई आपत्तिके कारण दबे हुए होते हैं, उभर आते हैं । और यदि लड़ाईके अन्तमें समझौता हो गया तो उसमें दोष निकालना सदा सुगम होनेसे बहुत से लोग इस काम में लग जाते हैं। जहाँ तन्त्र राष्ट्रीय अथवा प्रजासत्तात्मक होता है वहाँ छोटे-बड़े सभी लोगोंको उत्तर देना और सन्तुष्ट करना पड़ता है। यह है भी ठीक। मनुष्यको जितने अनुभव ऐसे समय में अर्थात् मित्रोंके बीच भ्रम अथवा झगड़ा होनेके समयमें प्राप्त हो सकते हैं उतने विरोधी पक्षके विरुद्ध लड़ाई करनेमें नहीं हो सकते। विरोधी पक्षसे लड़नेमें एक प्रकारका नशा रहता है अतः उसमें उल्लास होता है । किन्तु जब मित्रोंके बीच भ्रम अथवा विरोध पैदा होता है, तब वह एक असाधारण स्थिति मानी जाती है और वह सदा दुःखद ही होती है । फिर भी मनुष्यकी कसौटी ऐसे समय में ही होती है। यह मेरा निरपवाद अनुभव है और मुझे लगता है कि मैंने अपनी आन्तरिक सम्पदा सदा ऐसे समयमें