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दक्षिण आफ्रिकाके सत्याग्रहका इतिहास

ही संचित की है। जो लोग इस लड़ाईका शुद्ध रूप लड़ते-लड़ते नहीं समझ सके थे वे समझौतेके समय और उसके बाद उसे भली-भाँति समझ गये । वास्तविक विरोध तो पठानोंके सिवा किसी औरने किया ही नहीं।

इस प्रकार दो-तीन महीने निकल गये। इस बीच एशियाई दफ्तरने ऐच्छिक परवाने देने की तैयारी कर ली। परवानोंका रूप बिलकुल बदल गया था और उसको यह रूप सत्याग्रही मण्डलसे बातचीत करके दिया गया था।

१० फरवरी, १९०८ की सुबह हम कुछ लोग परवाने लेने के उद्देश्यसे जानेके लिए तैयार हुए। लोगोंको भली-भांति समझा दिया गया था कि कौमको परवाना लेनेका काम जल्दी ही समाप्त कर देना है। यह भी तय कर लिया गया था कि पहले दिन सबसे पहले नेतागण ही परवाने लेंगे। उद्देश्य यह था कि लोगोंकी झिझक, निकल जाये, एशियाई दफ्तरके अधिकारी अपना काम नम्रतासे करते हैं या नहीं, यह पता लगा दिया जाये और इस कार्यपर दूसरी तरहसे निगाह रखी जा सके ।

मेरा दफ्तर ही सत्याग्रहका दफ्तर भी था। जब मैं वहाँ पहुँचा तब मुझे दफ्तरके बाहर मीर आलम और उनके साथी खड़े दिखाई दिये। मीर आलम मेरा पुराना मुवक्किल था और मुझसे अपने सब कामोंमें सलाह लेता था। ट्रान्सवालमें बहुत से पठान घास और नारियलकी चटाके गद्दे बनानेका काम करते थे। इसमें उनको अच्छा मुनाफा मिल जाता था। वे इन गद्दोंको मजदूरोंसे तैयार करवाते थे और स्वयं मुनाफा लेकर बेचते थे। मीर आलम भी यही काम करता था । वह छः फीटसे ज्यादा ऊँचा रहा होगा। उसका डील-डौल विशाल था और वह दोहरी देहका आदमी था। मैंने मीर आलमको आज पहली बार ही दफ्तरके अन्दरकी बजाय बाहर खड़े देखा था। निगाहें मिलनेपर भी उसने मुझे सलाम नहीं किया, ऐसा भी उसने पहली ही बार किया था। किन्तु मैंने उसको सलाम किया और उसने उसका जवाब दिया। मैंने उससे अपने रिवाजके मुताबिक पूछा, कहो, कैसे हो ?” मुझे ऐसा खयाल आता है कि उसने जवाबमें यह कहा था, 'अच्छा है।" किन्तु आज उसका चेहरा हमेशा- की तरह खुशीसे चमक नहीं रहा था। उसकी आँखोंमें मुझे कोधकी झलक दिखाई दी। यह बात मैंने अपने मनमें समझ ली। कुछ होना है यह भी सोचा। मैं दफ्तरमें घुसा। अध्यक्ष ईसप मियाँ और दूसरे मित्र आ गये और हम एशियाई दफ्तरको रवाना हुए। मीर आलम और उसके साथी भी साथ-साथ चले।

एशियाई दफ्तरने जो मकान लिया था वह वहाँसे एक मीलसे कुछ कम दूर वॉन बैंडिस स्क्वेयरमें था। बीचमें कई आम रास्ते पड़ते थे। ब्रेडिस स्क्वेयरमें मैसर्स आर्नोट ऐंड गिब्सनकी इमारतके बाहर पहुँचनेपर जब एशियाई दफ्तरका लगभग तीन मिनटका रास्ता रह गया तब मीर आलमने मेरे पास आकर मुझसे पूछा,

"आप कहाँ जा रहे हैं ?"

१. यह वाक्य मूल गुजरातीमें नहीं है।