पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 29.pdf/१५८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१३२
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

देखेंगे। किन्तु डोक परिवारने मेरी जो सेवा की उसको बताने से पहले मुझे पाठकोंको उनका इतना परिचय देना आवश्यक था।

रात हो या दिन हो, डोक-परिवारमें से कोई-न-कोई मेरे पास अवश्य रहता है। मैं जबतक श्री डोकके घर रहा तबतक उनका घर धर्मशाला बना रहा ! हिन्दु- स्तानी कौममें फेरीदार और ऐसे ही दूसरे लोग थे, वे तो मजदूरों-जैसे कपड़े पहनते थे, गन्दे भी होते थे और उनके जूतोंपर सेर-सेर धूल जमी होती थी। फिर उनके पास उनकी गठरी अथवा छाबड़ी भी होती थी। ऐसे हिन्दुस्तानियोंसे लेकर अध्यक्ष तक अमीर और गरीब दोनों वर्गोंके हिन्दुस्तानी श्री डोकके घर आते-जाते ही रहते। ये सभी लोग मेरी खबर लेने और जब डाक्टरने छूट दे दी तब मुझसे मिलने-जुलने आते थे । श्री डोक इन सभीको समान रूपसे सम्मान देकर और प्रेमभावसे अपनी बैठकमें बिठाते। जबतक मैं डोक-परिवार के साथ रहा तबतक मेरी सार-सँभालमें और मुझसे मिलनेके लिए आनेवाले सैकड़ों लोगोंके आदर-सत्कारमें उनका सारा समय चला जाता । वे रातको भी दो-तीन बार मेरे कमरेमें चुपचाप आकर मुझे देख ही जाते। उनके घरमें रहते हुए मुझे किसी दिन भी यह खयाल नहीं आ सका कि यह घर मेरा नहीं है अथवा मेरा कोई प्रिय सगा-सम्बन्धी होता तो वह मेरी सार-संभाल अधिक करता ।

पाठक यह भी न मानें कि हिन्दुस्तानी कौमकी लड़ाईकी इतनी खुली तरफदारी करने अथवा मुझे अपने घर में रखने के कारण श्री डोकको कोई हानि नहीं उठानी पड़ी थी। वे अपने पन्थके गोरोंके लिए एक चर्च चलाते थे। उन्हें अपनी जीविका इस पन्थके लोगोंसे ही मिलती थी। ऐसे लोग सभी उदारहृदयके होते हैं, यह तो मानना ही नहीं चाहिए। हिन्दुस्तानियोंके प्रति सामान्य घृणा उनमें भी थी ही । श्री डोकने इस बातकी परवाह ही नहीं की। जब आरम्भमें हम दोनोंका परिचय हुआ मैंने उनसे तभी इस नाजुक विषयपर चर्चा की थी। उन्होंने इस सम्बन्धमें जो उत्तर दिया था वह ध्यान देने योग्य है। उन्होंने कहा था : "प्यारे मित्र ! आप ईसाके धर्मको कैसा मानते हैं? जो मनुष्य अपने धर्मकी खातिर सूलीपर चढ़ गया और जिसका प्रेम संसार- जैसा ही विशाल था, मैं उसी ईसाका अनुयायी हूँ। जिन गोरों द्वारा मेरे त्याग दिये जानेका भय है यदि में ईसाके अनुयायीके रूपमें उन गोरोंके सम्मुख तनिक भी आदर्श उपस्थित करना चाहता हूँ तो मुझे इस आन्दोलनमें खुल्लम- खुल्ला भाग लेना ही चाहिए और यदि ऐसा करते हुए मेरा सम्प्रदाय मुझे त्याग दे तो मुझे उसमें तनिक भी दुःख नहीं मानना चाहिए। मुझे उनसे जीविका मिलती है यह सच है, किन्तु आप यह तो अवश्य ही नहीं मानते होंगे कि मैं उनसे अपनी जीविकाके खातिर ही सम्बन्ध रखता हूँ अथवा मेरी जीविका देनेवाले वे हैं। मुझे मेरी जीविका ईश्वर देता है। वे लोग तो निमित्त-मात्र हैं। उनके और मेरे सम्बन्धकी स्वतः ही मानी हुई एक शर्त यह है कि उनमें से कोई भी मेरी धार्मिक स्वतन्त्रतामें बाधक नहीं हो सकता। इसलिए आप मेरे सम्बन्धमें निश्चिन्त रहें। मैं इस आन्दोलनमें हिन्दुस्तानियोंपर कोई अनुग्रह करनेके लिए नहीं आया हूँ, बल्कि मैं तो इसे अपना