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दक्षिण आफ्रिका सत्याग्रहका इतिहास

धर्म मानता हूँ। और मैंने अपने धर्माधिकारी (डीन) को इस सम्बन्धमे स्पष्टीकरण दे रखा है। मैंने उन्हें यह विनयपूर्वक बता दिया है कि यदि उन्हें हिन्दुस्तानियोंसे मेरा प्रेम-सम्बन्ध अच्छा न लगता हो तो वे मुझे खुशीसे छुट्टी दे सकते हैं और किसी दूसरेको पादरी नियुक्त कर सकते हैं । किन्तु उन्होंने मुझे बिलकुल निश्चिन्त कर दिया है, इतना ही नहीं; बल्कि प्रोत्साहन भी दिया है। फिर आपको यह भी नहीं समझना चाहिए कि सभी गोरे समान रूपसे आप लोगोंको तिरस्कारकी दृष्टिसे देखते हैं। आपके प्रति परोक्ष रूपमें गोरोंकी कितनी अधिक सहानुभूति है, आप उसकी कल्पना नहीं कर सकते; किन्तु आप यह स्वीकार करेंगे कि उसका अनुभव मुझे तो होना ही चाहिए। "

इतनी साफ-साफ बात होनेपर मैंने इस विषयको फिर कभी नहीं छेड़ा। इसके बाद इस लड़ाईके दरम्यान भी जब रोडेशियामें अपना धार्मिक कार्य करते हुए श्री डोकका स्वर्गवास हो गया तब उनके सम्प्रदाय के लोगोंने गिरजेमें एक शोक सभा की । उन्होंने इस सभा में स्व० काछलियाको, दूसरे हिन्दुस्तानियोंको और मुझे बुलाया था और मुझे बोलनेका भी निमन्त्रण दिया था।

मैं ठीक तरहसे चलने-फिरनेके योग्य हुआ, मुझे इसमें दस-एक दिन लगे होंगे। उसके बाद मैंने इस प्रेमी परिवारसे छुट्टी ली और इस तरह बिछुड़ते हुए हम दोनोंको दुःख हुआ ।

अध्याय २३

गोरे सहायक

इस संघर्ष में पर्याप्त संख्यामें प्रतिष्ठित गोरोंने हिन्दुस्तानी कोमकी ओरसे आगे बढ़कर भाग लिया था । यहाँपर उनका कुछ परिचय दे देना अनुचित न होगा । इससे एक तो जगह- जगहपर उनके नाम आनेपर पाठकोंको वे अपरिचित नहीं लगेंगे, दूसरे मुझे भी संघर्षका वर्णन करते हुए बीच-बीचमें उनका परिचय देनेके लिए रुकना नहीं पड़ेगा। उनके नाम यहाँ जिस क्रममें आये हैं उससे पाठक यह न समझ लें कि वह क्रम उनकी प्रतिष्ठा अथवा उनकी सहायताके मूल्यांकनके खयालसे रखा गया है । समझना यही चाहिए कि मैंने उनके नाम परिचय होने के क्रमसे और संघर्षमें जिस दौरमें उनकी सहायता मिली उसके कमसे दिये हैं ।

सबसे पहले, अल्बर्ट वेस्टके बारेमें। कौमके साथ उनका सम्बन्ध इस संघर्ष से पहले ही आरम्भ हो गया था और मेरे साथ तो उनका सम्बन्ध उससे भी पहले हो चुका था। मैंने जब जोहानिसबर्ग में अपना दफ्तर खोला तब मेरा परिवार मेरे साथ नहीं था । पाठकों को याद होगा कि मैं १९०३ में दक्षिण आफ्रिकासे हिन्दुस्तानियोंका तार मिलनेपर एकाएक चल पड़ा था और वह भी एक वर्षके भीतर वापस आ जानेके विचारसे । जोहानिसबर्ग में एक निरामिष भोजन-गृह था । मैं उसमें दोपहरको

१. गांधीजीके भाषणके लिए देखिए खण्ड १२, पृ४ १६९-१७० ।