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दक्षिण आफ्रिका सत्याग्रहका इतिहास

न था । इसलिए मेरे रक्षकोंकी अपने-आप बनी हुई टुकड़ीने रातको मेरे बिस्तरके पास ही पहरा देनेका फैसला किया। यद्यपि मैंने डर्बनमें इस टुकड़ीकी हँसी उड़ाई थी और उसे यहाँ आनेसे रोकनेका प्रयत्न किया था, फिर भी मुझे अपनी इतनी कमजोरी तो स्वीकार करनी ही चाहिए कि जब टुकड़ीके सदस्योंने पहरा देना शुरू किया तब मुझे अपने मनमें अभयकी अनुभूति हुई और यह खयाल भी आया कि यदि ये लोग यहाँ न आते तो क्या मैं इतना अभय हो कर सो सकता ? मुझे ऐसा खयाल आता है कि कोई आवाज होती थी तो मैं उससे अवश्य चौंक पड़ता था दक्षिण था। इसलिए मेरे रक्षकोंकी अपने-आप बनी हुई टुकड़ीने रातको मेरे बिस्तरके पास ही पहरा देनेका फैसला किया। यद्यपि मैंने डर्बनमें इस टुकड़ीकी हँसी उड़ाई थी और उसे यहाँ आनेसे रोकनेका प्रयत्न किया था, फिर भी मुझे अपनी इतनी कमजोरी तो स्वीकार करनी ही चाहिए कि जब टुकड़ीके सदस्योंने पहरा देना शुरू किया तब मुझे अपने मनमें अभयकी अनुभूति हुई और यह खयाल भी आया कि यदि ये लोग यहाँ न आते तो क्या मैं इतना अभय हो कर सो सकता ? मुझे ऐसा खयाल आता है कि कोई आवाज होती थी तो मैं उससे अवश्य चौंक पड़ता था ।

मेरा खयाल है कि ईश्वरपर मेरी अविचल श्रद्धा है। बहुत वर्षोंसे में अपनी बुद्धिसे यह भी मानता आया हूँ कि मृत्यु मनुष्य के जीवनमें एक बड़ा परिवर्तन मात्र है और वह जब भी आये स्वागत योग्य ही है। मैंने अपने हृदयमें से मृत्यु-भयको और अन्य भयोंको ज्ञानपूर्वक निकालनेका भारी प्रयत्न किया है। फिर भी मुझे स्मरण है कि मैं अपने जीवनमें अनेक अवसरोंपर मृत्युसे भेंट होने की सम्भावनाका विचार आनेपर किसी वियुक्त मित्रसे भेंट होनेके विचार-जैसा आनन्दविभोर नहीं हो सका हूँ । मनुष्य इस प्रकार सबल बननेका महान् प्रयत्न करनेपर भी बहुत बार निर्बल रह जाता है और बुद्धि-जनित ज्ञान, व्यवहारका अवसर आनेपर, अधिक काम नहीं आ पाता । फिर जब उसे बाह्य आश्रय मिल जाता है और उसे वह स्वीकार कर लेता है तब तो वह अपने आन्तरिक बलको बहुत कुछ खो ही बैठता है। सत्याग्रहीको चाहिए कि वह इस प्रकारके भयोंसे सदा बचता रहे ।

मैंने फीनिक्स में एक ही काम किया और वह था इस भ्रमको दूर करनेके लिए खूब लिखना । मैंने सम्पादक और सन्देहग्रस्त पाठकोंका एक कल्पित संवाद भी लिखा। इस संवादमें मैंने अपनी सुनी हुई समस्त आपत्तियों और आलोचनाओंका यथासम्भव विस्तारसे विवेचन किया। मेरा खयाल है कि इसका फल अच्छा निकला । कुछ लोगोंको सचमुच भ्रम हुआ होता अथवा बना रहता तो उसका परिणाम दुःख- दायी होता । ऐसे लोगोंमें यह भ्रम जमा नहीं है, यह भली-भांति प्रकट हो गया । समझौतेको मानना या न मानना केवल ट्रान्सवालके हिन्दुस्तानियोंका काम था । इस- लिए उनकी परीक्षा उनके कार्योंसे होनी थी और नेता और सेवकके रूपमें मेरी भी परीक्षा होनी थी । ऐच्छिक परवाने जिन्होंने नहीं लिये ऐसे हिन्दुस्तानी बहुत कम ही रहे होंगे। परवाने लेनेके लिए इतने हिन्दुस्तानी जाते थे कि परवाने देनेवाले अधि- कारियोंको फुरसत नहीं मिलती थी । कौमने समझौते के अन्तर्गत अपनी तरफकी शर्तोंको बहुत जल्दी पूरा कर दिया था। यह बात सरकारको भी स्वीकार करनी पड़ी। मैंने यह भी देखा कि यद्यपि भ्रमने उग्र रूप ले लिया था, किन्तु वह बहुत कम क्षेत्र तक ही सीमित था । जब कुछ पठानोंने कानून अपने हाथमें ले लिया और जोर-जबर- दस्तीका रास्ता पकड़ा तब भारी खलबली मची। किन्तु यदि हम ऐसी खलबलीका

१. देखिए खण्ड ८, पृष्ठ ७५-८३ ।

२. २१ अगस्त, १९०८ को विधान परिषद् में स्मटसने भी इसे स्वीकार किया था। देखिए खण्ड ८, परिशिष्ट १० ।