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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

विश्लेषण करें तो हमें यह मालूम पड़ जाता है कि वह बहुत गहरी नहीं होती और प्रायः क्षणिक भी होती है। फिर भी संसारमें उसका जोर आज भी कायम है, क्योंकि हम खून-खराबीसे काँप जाते हैं। किन्तु यदि हम धैर्यपूर्वक विचार करें तो हमें तुरन्त मालूम हो जायेगा कि कांपनेका कोई भी कारण नहीं है। मान लें कि मीर आलम और उसके साथियोंकी चोटोंसे घायल होनके बजाय मेरा शरीर नष्ट हो जाता। यह भी मान लें कि कौम ज्ञानपूर्वक निश्चिन्त और शान्त बनी रहती और मीर आलम अपनी बुद्धिके अनुसार इससे भिन्न कुछ कर ही नहीं सकता था, यह समझकर उसके प्रति मित्रभाव और क्षमाभाव रखती। तब कीमका कोई नुकसान न हुआ होता, इतना ही नहीं, बल्कि उससे उसको बहुत लाभ पहुँचता, क्योंकि कौममें से भ्रम बिल- कुल निकल जाता। उससे कीम अपनी प्रतिज्ञापर दुगुन उत्साहसे आरूढ़ रहती और अपने कर्तव्यका पालन करती। उससे मुझे तो विशुद्ध लाभ ही हुआ होता, क्योंकि सत्याग्रहीको सत्य आग्रह करते हुए सत्याग्र प्रसंगमें ही अनायास मृत्युको आ करना पड़े, वह इससे अधिक मंगल किसी अन्य परिणामकी कल्पना ही नहीं कर सकता। ऐसे तर्क सत्याग्रह-जैसे संघर्षपर ही लागू हो सकते हैं, क्योंकि उसमें वैरभावके लिए स्थान नहीं होता। उसमें आत्मशक्ति अथवा आत्मावलम्बन ही एकमात्र साधन होता है। उसमें एकको दूसरेके मुंहकी ओर ताकते बैठा नहीं रहना पड़ता। उसमें कोई नता नहीं होता, इसलिए कोई सेवक भी नहीं होता, अथवा कहना चाहिए कि उसमें सभी सेवक और सभी नेता होते हैं। इसलिए चाहे कितने ही प्रमुख मनुष्यकी मृत्यु क्यों न हो जाये उससे यह लड़ाई शिथिल नहीं होती, बल्कि और भी तीव्र होती है।

यह सत्याग्रहका शुद्ध और मूल रूप है। हमें व्यवहारमें ऐसा दिखाई नहीं देता, क्योंकि सभी लोग वैरका त्याग नहीं कर पाते । व्यवहारमें देखा जाता है कि सत्याग्रहका मर्म सभी नहीं समझते। बहुतसे लोग तो थोड़ेसे लोगोंको देखकर उनका अन्धानुकरण करते हैं। फिर टॉल्स्टॉयके कथनानुसार तो ट्रान्सवालका प्रयोग सामुदायिक और सामाजिक सत्याग्रहका पहला ही प्रयोग है। स्वयं मैं ऐसे सत्याग्रहका ऐतिहासिक उदाहरण नहीं जानता। मेरा ऐतिहासिक ज्ञान बहुत कम है, इसलिए मैं इस सम्बन्धमें अपना कोई निश्चित मत नहीं बना सकता । किन्तु असलमें देखें तो इस तरहके उदाहरणोंसे हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है। यदि आप सत्याग्रहके मूलतत्व स्वीकार कर लें तो आप देखेंगे कि मैन जो परिणाम बताये हैं, वे उसमें मौजूद हैं।

इनपर अमल करना मुश्किल या नामुमकिन है ऐसा तर्क देखकर हम इस अमूल्य वस्तुकी उपेक्षा नहीं कर सकते । शस्त्रबलके दूसरे प्रयोग तो हजारों सालोंसे होते आये हैं। उनके कटु परिणाम हम प्रत्यक्ष देख रहे हैं। भविष्यमें उनके मीठे परि- णाम होने की आशा कम ही की जा सकती है। यदि अन्धकारमें से प्रकाश उत्पन्न हो सकता हो तो वैरभावमें से प्रेमभाव भी प्रकट हो सकता है।