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दक्षिण आफ्रिका सत्याग्रहका इतिहास

किन्तु गोरोंका हिन्दुस्तानियोंके सम्बन्धमें बना हुआ यह सामान्य विचार ही उक्त पत्रको लिखनेका पर्याप्त कारण था । कौमके सामने दो स्थितियाँ थीं; एक तो यह कि वह अपने आपको असभ्य मानकर दबी रहे और दूसरी यह कि अपने आपको असभ्य मानने से इनकार करके कुछ अमली कदम उठाये। यह पत्र ऐसे कदमोंमें पहला कदम था। यदि इस पत्रके पीछे उसपर अमल करनेका दृढ़ निश्चय न होता तो वह उद्धतताका सूचक माना जाता और यह सिद्ध करता कि भारतीय कौम विचार- हीन और असंस्कृत है।

पाठकोंके मनमें शायद यह शंका उत्पन्न हो कि अपनेको असभ्यं माननेसे इन्कार करनेका कदम तो १९०६ में जब सत्याग्रहकी प्रतिज्ञा की गई, तभी उठाया जा चुका था और यदि यह बात ठीक हो तो इस कागजमें ऐसी कौनसी नई बात थी जिससे में इसे ऐसा महत्व देता हूँ और यह मानता हूँ कि कोमने उसी समयसे अपने-आपको असभ्य मानने से इन्कार किया। एक दृष्टिसे ऐसा तर्क ठीक माना जा सकता है किन्तु विशेष विचार करनेसे मालूम होगा कि इस इनकारीका ठीक-ठीक आरम्भ तो इस निश्चय-पत्रसे हुआ। पाठकोंको याद रखना चाहिए कि सत्याग्रहकी प्रतिज्ञाकी घटना तो अकस्मात् हुई थी। उसके बाद जेल जाना आदि तो उसका अनिवार्य परिणाम ही था । उससे कोमकी जो प्रतिष्ठा बढ़ी, वह अनजाने ही बढ़ी थी । इस पत्रको लिखते समय तो परिणामोंका पूरा ज्ञान और प्रतिज्ञाकी रक्षाका पूरा संकल्प था । खूनी कानून रद करानेका उद्देश्य तो जैसा पहले था वैसा अब भी था । किन्तु उसके साथ भाषाकी शैली, कार्य-पद्धतिके चुनाव आदिमें भेद था। एक गुलाम अपने मालिकको सलाम करता है और एक दोस्त दूसरे दोस्तको सलाम करता है. - सलाम तो ये दोनों ही करते हैं किन्तु इन दोनोंमें इतना बड़ा भेद है कि तटस्थ दर्शक भी यह पहचान ले सकता है कि उनमें कोन गुलाम है और कौन मित्र ।

आपसमें यह विचार तो किया ही था कि समझा जायेगा, क्या ऐसा नहीं हो सकता 'अल्टीमेटम' भेजते वक्त भी हमने उत्तरकी अवधि बाँधनेको क्या अविनय नहीं कि स्थानीय सरकार हमारी माँग स्वीकार करना चाहती हो तो भी इसके कारण वह उसे स्वीकार न करे ? क्या अप्रत्यक्ष रीतिसे कौमका निश्चय सरकारको बताना पर्याप्त न होगा ? इन सब बातोंपर विचार करनेके बाद हम सबने एकमत होकर यह निश्चय किया कि हम जिस बातको ठीक और उचित मानते हों हमें वही करनी चाहिए। अशिष्ट माने जानेका खतरा हो तो उसे भी उठाना चाहिए। जो देना चाहिए सरकार उसे भी अनुचित रोषके कारण न दे, यह जोखिम भी उठाई जानी चाहिए। यदि हम किसी भी तरह अपनेको मनुष्यके रूपमें हीन माननेके लिए तैयार न हों और कितने ही समयतक कैसे ही कष्ट आयें उन्हें सहन करनेकी शक्ति अपने भीतर मानते हों तो हमें जो मार्ग उचित और सीधा हो वही स्वीकार करना चाहिए। पाठक अब देख सकेंगे कि इस बार जो कदम उठाया गया था उसमें कुछ नवीनता और विशेषता थी । उसकी प्रतिध्वनि विधान सभामें और उसके बाहर गोरोंकी