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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

जितने गोरे कौमको खुल्लम-खुल्ला सहायता दे रहे हैं उनकी अपेक्षा कहीं अधिक गोरोंकी सहानुभूति गुप्त रूपसे कीमके साथ है। अतः उनके लिए यह सोचना स्वाभा- विक ही था कि यदि इन लोगोंकी यह सहानुभूति नष्ट की जा सकती हो तो अवश्य की जाये । इसलिए उन्होंने मुझपर नया मुद्दा उठानेका आरोप लगाया और अपने पत्रोंमें तथा बातचीत करके भी हमारे अंग्रेज सहायकोंसे यही कहा, “गांधीको जितना में पहचानता हूँ उतना आप लोग नहीं पहचानते। यदि आप उन्हें अँगुल- भर दें तो वे एक हाथ-भर माँगेंगे। मैं यह सब जानता हूँ; इसीलिए मैं एशियाई कानूनको रद नहीं करता। जब उन्होंने सत्याग्रह शुरू किया था तब नये प्रवासियों की तो कोई बात ही नहीं थी। अब यदि हम ट्रान्सवालकी रक्षाके लिए नये हिन्दुस्तानियों के आनेपर प्रतिबन्धका कानून बनाते हैं तो वे उसके विरुद्ध भी सत्याग्रह करना चाहते हैं। इस तरहकी चालाकी कहाँतक बर्दाश्त की जा सकती है? वे चाहें जो करें और एक-एक हिन्दुस्तानी बर्बाद हो जाये तब भी मैं इस कानूनको रद करनेवाला नहीं हूँ । और सरकार भी हिन्दुस्तानियों के सम्बन्धमें अपनी नीतिको छोड़नेवाली नहीं है। अतः न्यायसंगत नीतिका समर्थन प्रत्येक गोरेको करना चाहिए।"

थोड़ा-सा विचार करें तो यह देखा जा सकता है कि उनका उक्त तर्क नितान्त अनुचित और नीति-विरुद्ध था। जिस समय प्रवासी प्रतिबन्धक कानूनका जन्म भी नहीं हुआ था उस समय में अथवा कौम उसका विरोध किस तरह कर सकते थे ? उन्होंने मेरी 'चालाकी' के बारेमें अपने अनुभवकी बात कही; किन्तु वे उसका एक भी उदाहरण नहीं दे सके। मैं स्वयं तो जानता हूँ कि दक्षिण आफ्रिकाके अपने इतने सालके निवासकालमें मैंने कभी चालाकी की हो यह मुझे याद नहीं आता; बल्कि इस समय तो मैं यहाँतक कहनमें भी नहीं झिझकता कि मैंने अपने समस्त जीवनमें चालाकीसे कभी काम नहीं लिया है। मेरा विश्वास है कि चालाकी से काम लेना नीति विरुद्ध है, यही नहीं, मैं तो उसे युक्ति विरुद्ध भी मानता हूँ । इसलिए व्यवहार-दृष्टि से भी चालाकी से काम लेना मुझे सदा नापसन्द रहा है। मैं अपनी सफाईमें यह बात लिखना भी जरूरी नहीं मानता। मैं जिन पाठकोंके लिए यह पुस्तक लिख रहा हूँ, उनके सम्मुख अपने मुँहसे अपनी सफाई देनेमें मुझे लज्जा आती है। यदि उनको अबतक इस बातका अनुभव न हुआ हो कि मुझमें कोई चालाकी नहीं है तो मैं अपनी सफाई देकर यह बात सिद्ध कर ही नहीं सकता। मैंने ऊपर जो बात लिखी है उसका उद्देश्य केवल इतना ही है कि सत्याग्रहकी लड़ाई किन संकटोंके बीच लड़ी जानी थी, पाठकोंको इसकी कल्पना हो सके और वे यह जान सकें कि यदि कोम नीतिके प्रशस्त पथसे तनिक भी डिगती तो लड़ाई कैसे जोखिममें पड़ जाती । बीस फुट ऊँचे लट्ठे-से बंधे रस्सेपर जब नट चलता है तब उसे अपनी दृष्टि एकाग्र करके ही चलना पड़ता है। यदि उसकी दृष्टि तनिक भी चूकती है तो वह चाहे जिस बाजू गिरे, उसकी मृत्यु तो निश्चित ही है। सत्याग्रहीको अपनी दृष्टि उससे भी अधिक एकाग्र करके चलना पड़ता है। मैंने आठ वर्षकी उस लम्बी अवधिमें यह अनुभव प्राप्त कर लिया था। जनरल स्मट्सने जिन मित्रोंके सम्मुख मुझपर उक्त आरोप