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दक्षिण आफ्रिकाके सत्याग्रहका इतिहास

सब जातियोंसे आगे है, ये बातें ही इस जातिकी उच्चताको प्रमाणित करती हैं। किन्तु इसमें सोराबजी तो व्यवहारकी कसौटीपर. रत्न ही निकले। वे जब लड़ाई में सम्मिलित हुए तव उनसे मेरा परिचय बहुत मामूली-सा था । उन्होंने लड़ाईमें सम्मि लित होनेके सम्बन्धमें मुझे जो पत्र लिखे थे, मुझपर उनकी अच्छी छाप पड़ी थी। मैं जहां पारसियोंके गुणोंका पुजारी हूँ वहाँ जातिके रूपमें उनमें कुछ दोष भी हैं इस बातसे अनजान नहीं हूँ; और तब भी नहीं था। इसलिए मेरे मनमें यह सन्देह था कि अवसर आनेपर सोराबजी टिक भी सकेंगे या नहीं; किन्तु जबतक सम्बन्धित मनुष्य अपने आचरणसे अन्यथा सिद्ध न कर दे तबतक इस तरहके सन्देहको महत्त्व न देना मेरा नियम था। इसलिए मैंने समितिको सलाह दी कि सोराबजीने अपने पत्रों में जिस दृढ़ताका परिचय दिया है वह उसपर विश्वास करें; और अन्तमें तो सोराबजी प्रथम कोटिके सत्याग्रही सिद्ध हुए। वे लम्बीसे-लम्बी सजा भुगतनेवाले सत्याग्रहियोंमें से एक थे, इतना ही नहीं, बल्कि उन्होंने इस लड़ाईका इतना गहरा अध्ययन कर लिया था कि उसके कारण वे लड़ाईके सम्बन्धमें जो कुछ भी कहते उस सबपर ध्यान देना ही पड़ता था। उनकी सलाहमें सदा ही दृढ़ता, उदारता और शान्ति आदि गुण दिखाई देते। वे उतावलीमें कोई मत नहीं बनाते थे और जो मत बना लेते थे उसे बदलते नहीं थे। उनमें जितना पारसीपन था - और वह बहुत था - उतना ही हिन्दुस्तानीपन भी था। उनमें संकुचित जातीय गर्वकी गंधतक भी नहीं देखी गई। सत्याग्रहकी लड़ाईकी समाप्तिपर डॉ० मेहताने किसी अच्छे सत्याग्रहीको बॅरिस्टरी करनेके लिए इंग्लैंड भेजनेके उद्देश्यसे एक छात्रवृत्ति दी थी। इस सत्याग्रहीका चुनाव तो मुझको ही करना था। इसके लिए दो-तीन योग्य हिन्दुस्तानी थे; किन्तु सब मित्रोंको यही लगा कि प्रौढ़ता और समझदारीमें सोराबजीकी बराबरी कोई नहीं कर सकता । इस कारण इसके लिए वे ही चुने गये थे। ऐसे किसी हिन्दुस्तानीको इंग्लैंड भेजनेका हेतु यह था कि वह दक्षिण आफ्रिकामें लौटकर मेरा स्थान ले और कौमकी सेवा करे। सोराबजी कौमका आशीर्वाद और सम्मान प्राप्त करके इंग्लैंड गये और बैरिस्टर बन गये । वे गोखलेके सम्पर्कमें दक्षिण आफ्रिकामें ही आ चुके थे; किन्तु इंग्लैंडमें उनसे उनका निकट सम्बन्ध हो गया। सोराबजीने उनका मन हर लिया । उन्होंने सोराबजी से आग्रह किया कि वे जब हिन्दुस्तान लौटें तब "भारत सेवक समाज में सम्मिलित हों। सोराबजी छात्र-समुदायमें बहुत प्रिय हो गये थे। वे सभीके दुखोंमें भाग लेते थे। उनके मनपर इंग्लैंडके आडम्बर या सुख-चैनके जीवनका तनिक भी असर नहीं पड़ा था। जब वे इंग्लैंडमें गये तब वे तीस वर्षके हो चुके थे। उनका अंग्रेजीका ज्ञान उच्च कोटिका न था और वे व्याकरण तो भूल-भाल ही गये थे। किन्तु मनुष्यकी लगनके सामने ऐसी बाधाएँ नहीं टिक सकतीं। सोराबजी शुद्ध विद्यार्थी जीवन बिताते हुए अपनी परीक्षाओंमें उत्तीर्ण होते गये। मेरे जमानेकी बैरिस्टरीकी परीक्षा आसान थी। आजकल बैरिस्टरोंको बहुत ज्यादा पढ़ाई करनी पड़ती है। सोराबजीने इससे हार नहीं मानी। जब इंग्लैंडमें आहत सहायक दल बनाया गया तब उसका आरम्भ

१. देखिए खण्ड ११, पृष्ठ १०३।

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