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दक्षिण आफ्रिकाके सत्याग्रहका इतिहास

किन्तु उतने पैसे से अथवा चाहे जितने पैसेसे सत्याग्रहकी, सत्यकी, आत्मशुद्धिकी, आत्मबलकी लड़ाई नहीं चल सकती । इस लड़ाईको चलानेके लिए तो चरित्रका धन चाहिए। जैसे धनी निवासीके बिना विशाल भवन भी खण्डहर लगता है वैसे ही चरित्र- हीन मनुष्य और उसकी सम्पत्तिको समझना चाहिए। सत्याग्रहियोंने देखा कि यह लड़ाई कितने लम्बे असेंतक चलेगी, इसका अन्दाज कोई नहीं कर सकता । कहाँ जनरल बोथा और जनरल स्मट्सकी एक अंगुल भी पीछे न हटनेकी प्रतिज्ञा और कहाँ सत्याग्रहियोंकी आमरण जूझनेकी प्रतिज्ञा । यह तो 'कीरी-कुंजर का युद्ध था । कुंजर अपने पैर के नीचे असंख्य कीड़ियोंको कुचल डाल सकता है । सत्याग्रही अपने सत्याग्रहको कालकी सीमामें नहीं बाँध सकता। एक वर्ष लगे या अनेक, उसके लिए दोनों एक-से हैं । उसके लिए तो लड़ना ही जीतना था । लड़नेका अर्थ था जेल जाना, निर्वासित होना। इस बीचमें कुटुम्बका क्या हो ? लगातार जेल जानेवाले आदमीको कोई भी नौकर नहीं रख सकता। वह जेलसे छूटनेपर क्या स्वयं खाये और क्या परिवारको खिलाये ? रहे कहाँ ? उसका किराया कौन दे ? जीविकाके बिना तो सत्याग्रही भी चिन्तित होता है । स्वयं भूखा रहकर और अपने कुटुम्बियोंको भूखा रखकर लड़ाईमें भाग लेनेवाले लोग संसारमें बहुत नहीं मिल सकते ।

आजतक तो जेल जानेवाले लोगोंके कुटुम्बोंका भरण-पोषण, उन्हें प्रतिमास कुछ पैसा देकर किया जाता था। सभीको उनकी आवश्यकताके अनुसार पैसा दिया जाता था । कीड़ीको कन और हाथीको मन । सभीको एक बराबर तो दिया नहीं जा सकता था। पाँच बच्चोंवाले सत्याग्रहीको और जिसका कोई आश्रित न हो ऐसे ब्रह्मचारीको एक कोटिमें नहीं रखा जा सकता था । केवल ब्रह्मचारी ही भरती किये जाते, यह भी सम्भव नहीं था । तब उन्हें किस सिद्धान्तके अनुसार धन दिया जाये ? बहुत करके प्रत्येक परिवारको उसपर विश्वास रखकर खर्चके लिए उतना धन दिया जाता था जितना वह कमसे कम आवश्यक बताता । इसमें छल-कपटकी बहुत गुंजाइश थी। छली लोगोंने इससे कुछ लाभ भी उठाया था। कुछ ऐसे निश्छल हृदयके लोग भी थे जिनके रहन-सहनका स्तर विशेष प्रकारका था और जो उसके अनुसार सहायताकी आशा करते थे। मैंने देखा कि इस तरह लड़ाई लम्बे अरसे तक चलाना असम्भव है । इसमें योग्यके साथ अन्याय हो जानेका और अनधिकारीके अपने पाखण्ड में सफल होने का भय भी था। यह कठिनाई एक ही तरहसे दूर की जा सकती थी कि सव कुटुम्ब एक जगह साथ-साथ रहें और साथ-साथ काम करें। इसमें किसी के साथ अन्याय होनेका भय नहीं था । कह सकते हैं कि इसमें पाखण्डके लिए भी गुंजाइश नहीं थी। इससे सार्वजनिक पैसेकी बचत हो सकती थी और सत्याग्रहियों- के कुटुम्बको नये और सादे जीवनकी तथा बहुतोंके साथ हिलमिल कर रहनेकी शिक्षा मिल सकती थी। इस तरह अनेक प्रान्तोंके और अनेक धर्मोके हिन्दुस्तानियोंको साथ-साथ रहनेका अवसर भी मिल सकता था ।

किन्तु ऐसी जगह कहाँ मिलती ? शहरमें रहने जाते तो भय था कि कहीं बकरी निकालकर ऊँटको जगह देने जैसी बात न हो जाये । शायद महीनेके खर्चके बरा-

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