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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

बर मकान किराया ही देना पड़ता और शहरमें सादगीसे रहनेमें दिक्कत होती। फिर शहरमें ऐसी जगह तो मिल ही नहीं सकती थी जहाँ बहुतसे कुटुम्ब घर बैठे कोई उपयोगी धन्धा कर सकें। अतः यह बात समझमें आई कि हमें ऐसी जगह चुननी चाहिए जो शहरसे न बहुत दूर हो और न बहुत पास । ऐसी जगह हमारे पास थी फीनिक्स । वहाँ 'इंडियन ओपिनियन' छपता था, थोड़ी खेती भी की जाती थी और अन्य बहुत-सी सुविधाएँ भी मौजूद थीं। किन्तु वह जोहानिसबर्गसे ३०० मील दूर था और वहाँ रेलसे जानेमें तीस घंटे लगते थे । कुटुम्बोंको इतनी दूर लाना कठिन और खर्चीला काम होता । फिर कुटुम्ब अपना घरबार छोड़कर इतनी दूर आनेके लिए तैयार न होते । तैयार भी होते तो उनको और जेलसे छूटे हुए लोगोंको इतनी दूर भेजना लगभग अशक्य लगा ।

इसलिए यह जरूरी था कि ऐसी जगह ट्रान्सवालमें ही हो और वह भी जोहानिसबर्गके पास ही । मैं श्री कैलनबैकका परिचय दे चुका हूँ। उन्होंने ११०० एकड़ जमीन खरीदी और (३० मई, १९१० को) सत्याग्रहियोंको उसके उपयोगका अधिकार मुफ्त दे दिया। उस जमीनमें लगभग एक हजार फलदार पेड़ लगे थे और एक टेकरीके नीचे पाँच-सात लोगोंके रहने लायक छोटा-सां मकान भी बना था। वहाँ पानीका एक झरना और दो कुएँ भी थे। वहाँसे रेलका स्टेशन लॉली लगभग एक मील और जोहानिसबर्ग २१ मील था। इसी जमीनमें मकान बनाने और सत्याग्रहियोंके कुटुम्बोंको बसानेका निश्चय किया गया ।

अध्याय ३४

टाॅल्स्टॉय फार्म-२

यह जमीन कोई ११०० एकड़ थी और उसके ऊँचे भागपर एक छोटीसी पहाड़ी थी जिसपर एक छोटासा मकान था । फार्ममें काफी फलदार पेड़ थे। इनपर नारंगी, खूबानी और बड़ी किस्मके बेर बहुतायतसे लगते थे -- इतने कि फसलके दिनोंमें सत्याग्रही इन्हींपर रहें तो भी बाकी बच जायें ।

पानी एक छोटेसे झरनेसे मिल जाता था । वह झरना हमारे रहनेकी जगहसे लगभग ५०० गज दूर था, इसलिए पानी काँवरोंसे लानेकी जो मेहनत होती सो तो करनी ही पड़ती थी ।,

हमारा आग्रह था कि इस स्थानमें घरका काम और जहाँतक सम्भव हो वहाँतक खेतीका काम और मकान बनानेका काम भी नौकरोंसे न कराया जाये । इसलिए टट्टियाँ साफ करनेसे लेकर खाना पकाने तकका सब काम हमें अपने हाथोंसे ही करना था। हमें वहां कुटुम्ब रखने थे, किन्तु हमने यह निश्चय पहलेसे ही कर लिया था कि स्त्रियां और पुरुष अलग-अलग रखे जायेंगे । अतः यह तय हुआ कि दोनों-

१. देखिए खण्ड १०, पृष्ठ २९१-२।