पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 29.pdf/२०५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१७९
दक्षिण आफ्रिकाके सत्याग्रहका इतिहास

के लिए मकान अलग-अलग और कुछ फासलेसे बनाये जायें। दस स्त्रियों और सात पुरुषोंके रहने लायक मकान तत्काल बनानेका निश्चय किया गया । हमें एक मकान श्री कैलनबैंकके रहने के लिए बनाना था और उसके साथ ही एक शालाके लिए भी । इनके अतिरिक्त बढ़ईगिरी, मोचीगिरी और ऐसे ही अन्य कामोंके लिए एक कारखाना भी बनाना था ।

जो लोग इस स्थानमें रहने के लिए आनेवाले थे, वे गुजरात, मद्रास, आन्ध्र देश और उत्तरी हिन्दुस्तानके रहनेवाले थे। धर्मके विचारसे वे हिन्दू, मुसलमान, पारसी और ईसाई थे। उनमें लगभग चालीस युवक, दो-तीन वृद्धजन, पाँच स्त्रियाँ और बीससे लेकर तीसतक बच्चे थे। बच्चोंमें चार या पाँच लड़कियाँ थीं।

स्त्रियोंमें जो ईसाई थीं उनको और कुछ दूसरी स्त्रियोंको मांस खानेकी आदत थी। श्री कैलनबैंककी और मेरी राय थी कि यहां भोजनमें मांस न रखा जाये तो अच्छा हो । किन्तु ये प्रश्न उठते थे, जिन्हें मांस खानेमें कोई नैतिक आपत्ति नहीं है, जो इसी स्थानमें संकटके समय आ रहे हैं और जिन्हें जन्म से उसकी आदत है उनसे एक खास अरसेके लिए भी उसे छोड़नेकी बात कैसे कही जा सकती है ? यदि न कही जाये तो उसमें खर्च कितना होगा? फिर जिनको गोमांस खानेकी आदत है क्या उन्हें गोमांस भी देना चाहिए ? रसोईघर कितने रखे जायें, इस सम्बन्धमें मेरा धर्म क्या है ? ऐसे कुटुम्बोंको पैसा देनेका निमित्त होनेसे भी मैं मांस-भक्षण और गोमांस-भक्षणमें सहायक तो होता ही हूँ । यदि में यह नियम बना दूं कि मांसाहारीको सहायता दी ही न जाये तो मुझे सत्याग्रह केवल निरामिषभोजियोंसे ही चलाना होगा। यह भी कैसे हो सकता है, क्योंकि वह लड़ाई तो सभी हिन्दुस्तानियोंकी है ? इस सम्बन्धमें मुझे अपना कर्त्तव्य साफ दिखाई दिया। यदि ईसाई या मुसलमान भाई गोमांस भी माँगें तो मुझे उनके लिए वह जुटाना ही होगा। मैं उनका यहाँ आना कदापि वर्जित नहीं कर सकता ।

किन्तु जहाँ प्रेम हो वहाँ ईश्वर सहायक होता ही है। मैंने अपना संकट सरल- भावसे ईसाई बहनोंके सामने रखा। मुसलमान माँ-बापने मुझे शुद्ध निरामिष भोजनालय चलाने की अनुमति दे दी थी। मुझे इन बहह्नोंसे यह बात करनी बच रही थी। उनके पति अथवा पुत्र तो जेलमें थे। उनकी सहमति मुझे प्राप्त थी। उनके साथ ऐसा अवसर मुझे बहुत बार मिल चुका था । केवल बहनोंके साथ ऐसा अवसर यह पहला ही आया था। मैंने उनसे मकानोंकी असुविधाकी, पैसेकी तंगीकी और अपनी भावनाकी बात कही। किन्तु साथ ही मैंने उन्हें इस बारेमें आश्वस्त भी कर दिया कि यदि वे माँगेंगी तो मैं गोमांस भी मँगा दूंगा । इन बहनोंने प्रेमपूर्वक कहा कि वे मांस नहीं माँगेंगी। हमने भोजन बनानेका काम उनके ही हाथोंमें रखा और उनकी सहायताके लिए दो-एक पुरुष साथ दिये। इनमें एक तो मैं ही था। मेरे वहाँ रहनेसे छोटे-मोटे झगड़े दूर रह सकते थे । खाना सादासे-सादा बनानेका निश्चय किया गया । खानेका समय बाँध दिया गया। भोजनालय एक ही रखना तय किया गया। सभी लोग एक ही पंक्तिमें बैठकर भोजन करते । सबको अपने-अपने खानेके बरतन स्वयं ही माँज-धोकर