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दक्षिण आफ्रिकाके सत्याग्रहका इतिहास

नारंगी अथवा अंगूर और भुने हुए गेहूँकी काफी। उसके लिए नमक और सभी मसाले निषिद्ध थे। जिस मकानमें मैं सोता उसीके भीतरी भागमें लुटावनका बिस्तर भी होता। विस्तरमें सभोको दो कम्बल दिये जाते थे, एक बिछानेके लिए और दूसरा ओढ़नेके लिए। लकड़ीका एक तकिया भी दिया जाता था। इस तरह उसे एक सप्ताह बीत गया। लुटावनके शरीरमें तेज आ गया। दमा कम हो गया और खाँसी भी कम हो गई। किन्तु रातको दमा और खाँसी दोनों उखड़ते। मुझे उसपर तमाखू पीनेका शक हुआ। मैंने उससे पूछताछ की। उसने उत्तर दिया, "मैं तम्बाकू नहीं पीता।" एक-दो दिन और निकल गये। फिर भी कोई अन्तर नहीं पड़ा, इसलिए मैंने लुटा- वनको छुपकर देखनेका निश्चय किया। सभी लोग जमीनपर सोते थे ? साँप आदिका भय तो रहता ही था; इसलिए श्री कैलनबैंकने मुझे एक टार्च दी थी और एक टार्च अपने पास भी रखी थी। मैं रातको टार्च अपने पास रखकर सोता था। मैंने एक रात बिस्तरमें लेटे-लेटे जगनेका निश्चय किया। विस्तर दरवाजेके पास बाहर बरामदेमें था और लुटावनका बगलमें ही दरवाजेके भीतर । आधी रातके वक्त लुटा- वनको खाँसी आई। वह दियासलाई जलाकर बीड़ी पीने लगा। इसलिए मैं चुपकेसे जाकर उसके बिस्तरके पास खड़ा हुआ और मैंने टार्चका बटन दबा दिया। लुटावन घबरा गया, सब समझ गया, बीड़ी बुझाकर बैठ गया और मेरे पैर पकड़कर रुँघे गलेसे बोला, "मैंने बड़ा गुनाह किया है। अब में कभी तम्बाकू नहीं पीऊँगा। मैंने आपको धोखा दिया। आप मुझे माफ कर दें। " मैंने उसे आश्वासन दिया और कहा कि बीड़ी न पीनेमें उसीका हित है। मेरे अन्दाजसे अबतक खाँसी चली जानी थी। वह नहीं गई, इससे मुझे सन्देह हुआ। लुटावनने बीड़ी छोड़ दी तो दो-तीन दिनमें उसका दमा और खाँसी कम हो गई और एक महीनेमें दोनों बिलकुल चले गये । लुटावनमें पूरी शक्ति आ गई और उसने हमसे विदा ली।

स्टेशन मास्टरके लड़केको, जो दो सालका होगा, मोतीझिरा (टाइफाइड) हो गया। मेरे उपचारोंकी बात उन्हें भी मालूम थी ही। उन्होंने मेरी सलाह मांगी। मैंने उस बच्चेको पहले दिन खाने के लिए कुछ नहीं दिया। दूसरे दिनसे भली-भांति मसला हुआ आधा केला एक चम्मच जैतूनका तेल और कुछ बूंदे नींबू मिलाकर दिया। इसके अतिरिक्त खानेकी कोई दूसरी चीज देना बन्द कर दिया। मैंने रातको उसके पेटपर मिट्टीकी पट्टी बांधी। यह बच्चा भी नीरोग हो गया। हो सकता है कि डाक्टरने उसका निदान ठीक ने किया हो और उसे मोतीझिरा ( टाइफाइड) न रहा हो।

मैंने फार्ममें इस तरहके प्रयोग बहुत किये। इनमें से किसीमें भी विफल होनेका मुझे स्मरण नहीं। किन्तु आज वैसा ही उपचार करनेका मेरा साहस नहीं होता। अब मेरी हिम्मत मियादी बुखार (टाइफाइड) के रोगीको जैतूनका तेल और केला देनेकी नहीं पड़ती है। मुझे १९१८ में हिन्दुस्तानमें पेचिश हो गई थी। मैं उसका भी इलाज नहीं कर सका। मैं अभीतक यह नहीं समझ पाया हूँ कि जो उपचार दक्षिण आफ्रिकामें जैसे सफल होते थे वे यहाँ वैसे सफल क्यों नहीं होते? इसका कारण मुझमें आत्मविश्वासकी न्यूनता है या फिर यहाँकी जलवायुमें वे उपचार पूरी तरह लागू नहीं पड़ते ? मैं इतना ही जानता हूँ कि ऐसे घरेलू उपचारोंसे और टॉल्स्टॉय

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