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दक्षिण आफ्रिकाके सत्याग्रहका इतिहास

स्त्रियोंकी वीरताकी बात क्या करूँ। वे सभी नेटालको राजधानी मैरित्सबर्गकी जेलमें रखी गई थीं। यहाँ उन्हें खासी तकलीफें दी गईं। उनके खाने-पीनेकी तनिक भी परवाह नहीं की गईं। मशक्कतमें उन्हें कपड़े धोनेका काम दिया गया। बाहरसे खाने-पीनेकी चीजें मँगानेपर लगभग अन्ततक रोक रही। एक बहनका खानेमें कुछ विशेष वस्तुएँ लेनेका ही नियम था। उन्हें उन चीजोंको देनेका फैसला बहुत मुश्किलसे किया गया और वे खराब भी इतनी थीं कि उन्हें खाया नहीं जा सकता था। उन्हें जैतूनके तेलकी खास तौरसे जरूरत थी। वह पहले तो दिया ही नहीं गया। बादमें दिया गया; किन्तु वह पुराना और दुर्गन्धयुक्त था। जब उसे अपने खर्चसे मँगानेकी प्रार्थना की गई तो उसके उत्तरमें कहा गया, 'यह कोई होटल नहीं है। जो दिया जाये, वही खाना होगा।" यह बहन जब जेलसे निकली तब अस्थिपंजर मात्र रह गई थी। बहुत प्रयत्न करनेपर ही उसकी जान बची।

एक दूसरी बहन जेलसे जानलेवा ज्वर लेकर आई। वह २२ फरवरी, १९१४ को जेलसे निकली और उसके कुछ दिन बाद ही इस ज्वरके कारण ईश्वरके घर पहुँच गई। मैं उसे कैसे भूल सकता हूँ? वलिअम्मा आर० मूनसामी मुदलियार', जोहानिस- बर्गकी सोलह वर्षकी लड़की थी। मैं जब उसे देखने गया तब वह बिस्तरपर पड़ी थी । कद लम्बा होनेसे उसकी छरहरी देह सूखकर किसी लम्बी लकड़ी-जैसी दिखती थी और डरावनी लग रही थी ।

मैंने पूछा, "वलिअम्मा जेल जानेका पछतावा तो नहीं होता ? "

वह बोली, पछतावा क्यों होगा ! मुझे फिर गिरफ्तार करें तो इसी समय जेल जानेको तैयार हूँ।"

मैंने फिर पूछा ,"किन्तु इसका परिणाम मौत हो तो ?

उसका उत्तर था,'भले ही हो, देशके लिए मरना किसे अच्छा न लगेगा ? " मैंने फिर पूछा,


वलिअम्मा इस बातचीतके कुछ दिन बाद ही चल बसी । इस लड़कीका शरीर तो गया, किन्तु नाम अमर हो गया। उसकी मृत्युके बाद जगह-जगह शोक-सभाएँ की गईं और कौमने इस पुण्यशीला बहनकी स्मृतिमें "वलिअम्मा भवन" बनानेका निश्चय किया। कौमने इस भवनको बनानेका कर्तव्य अभीतक पूरा नहीं किया है। उसमें विघ्न आ गये। कौममें फूट पड़ गई। प्रमुख कार्यकर्ता एकके बाद एक चले गये । किन्तु यह पत्थर और चूनेका भवन बने या न बने, वलिअम्माकी सेवाएँ नष्ट न होंगी। इन सेवाओंका भवन तो वह स्वयं अपने हाथसे ही बना गई थी। उसकी मूर्ति बहुतोंके हृदयरूपी मन्दिरोंमें इस समय भी आसीन है और जबतक हिन्दुस्तानका नाम कायम है तबतक दक्षिण आफ्रिकाके इतिहासमें वलिअम्मा अवश्य अमर रहेगी।

उन बहनोंका बलिदान शुद्ध था। वे बेचारी कानूनकी बारीकियाँ नहीं जानती थीं। उनमें से बहुतोंको देशका कोई ज्ञान नहीं था। उनका देश-प्रेम विशुद्ध श्रद्धापर आधारित था। उनमें से कुछ निरक्षर थीं, इसलिए वे अखबार पढ़ना भी क्या जानतीं ? किन्तु वे यह जानती थीं कि जातिके सम्मानरूपी चीरका हरण किया जा रहा है।

१. देखिए खण्ड १२, पृष्ठ ३५२, ४६५, ४७८ और ५१५ ।