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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

प्रति मेरा भी कुछ कर्त्तव्य है, इसलिए उसने मुझे ठहरा लिया। उसने मुझे ठहराया ही नहीं, बल्कि अपना सब कुछ दे दिया। वह घर मेरे आनेके बाद धर्मशाला बन गया। सैकड़ों लोग और चाहे जैसे लोग आते और जाते ; घरके आसपासकी जमीन लोगोंसे ठसाठस भर गई। चौका चौबीसों घंटे चलता रहता। इसमें लाजरसकी पत्नीने तन-तोड़ मेहनत की। फिर भी उन दोनोंके चेहरोंपर सदा प्रसन्नता रही। मैंने उनकी मुखाकृतिपर कभी म्लानता नहीं देखी।

किन्तु लाजरस क्या सैकड़ों मजदूरोंको खाना खिला सकता था ?' मैने मजदूरोंको सुझाव दिया कि वे अपनी हड़तालको स्थायी समझकर अपनी मालिकोंकी कोठरियोंको छोड़ आयें, जो सामान बेचने लायक हो उसे बेच डालें और बाकी सामान अपनी कोठरियोंमें पड़ा रहने दें। मालिक उस सामानको हाथ नहीं लगायेंगे । किन्तु यदि मालिक उनसे ज्यादा बदला लेनेके लिए उसे फेंक भी दें तो वे इस जोखिमको भी उठायें । वे मेरे पास अपने पहनने के कपड़ों और ओढ़नेके कम्बलोंके सिवा दूसरी कोई चीज न लायें। जबतक हड़ताल चलेगी और वे जेलसे बाहर रहेंगे तबतक में उन्हींके साथ रहूँगा, खाऊँगा-पीऊँगा, इन शर्तोपर खानोंको छोड़कर आनेपर ही हड़ताल चल सकती है और कौम जीत सकती है। जिन लोगोंमें ऐसा करनेकी हिम्मत न हो वे वापस अपने कामपर चले जायें। जो कामपर जायें, कोई भी उनका तिरस्कार न करे और उन्हें परेशान न करे । इन शर्तोंको माननेसे किसीने भी इनकार किया हो, ऐसा मुझे याद नहीं आता। जिस दिन मैंने यह बात कही उसी दिनसे हिजरत करनेवालों -- गृह-त्यागियोंकी कतारें लग गईं। सभी अपने स्त्री-बच्चोंको साथ ले-लेकर और अपने सिरोंपर अपनी कपड़ोंकी पोटलियाँ रखकर आने लगे ।

मेरे पास उनके रहने के लिए तो केवल खुली जगह थी। सौभाग्यकी बात इतनी ही थी कि उन दिनों पानी नहीं गिर रहा था और ठण्ड भी नहीं पड़ रही थी । मेरा विश्वास था कि व्यापारी वर्ग उनको खाना देनेमें पीछे नहीं रहेगा। न्यूकैंसिलके व्यापारियोंने खाना पकानेके बरतन दिये और चावल और दालके बोरे भेजे। दूसरे शहरोंसे दाल, चावल, शाक-सब्जी और मसालों आदिकी वर्षा हुई। मेरे पास ये चीजें जितना मेरा खयाल था उससे ज्यादा आने लगीं। सभी जेल जानेके लिए तैयार नहीं हो सकते थे; किन्तु सबकी सहानुभूति तो थी ही । सभी यथाशक्ति सहायता देकर अपना हिस्सा अदा करने के लिए तैयार थे। जिनमें कुछ भी देनेका सामर्थ्य नहीं था उन्होंने अपनी सहायता सेवाके रूपमें दी। इन अज्ञानी और अशिक्षित लोगोंको सम्भालनेके लिए जानकार और समझदार स्वयंसेवकोंकी जरूरत तो थी ही; वे मिल गये और उन्होंने अमूल्य सहायता की। उनमें बहुतसे तो जेल भी गये। इस तरह सभीने यथाशक्ति सहायता दी और हमारा मार्ग सरल बनाया ।

असंख्य लोग इकट्ठे हो गये। इतने और निरन्तर बढ़ते हुए मजदूरोंको एक जगह बिना किसी कामकाजके सँभाले रखना अशक्य नहीं तो अत्यन्त दुष्कर काम अवश्य था। उनकी शौचादिकी आदतें तो अच्छी होती ही नहीं है। इस समुदाय में

१. देखिए खण्ड १२, पृष्ठ ५०४-५ ।