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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

गाँवमें भी रोटी बनानेवाले नहीं मिलते थे; इनमें रोटी शहरोंमें से ही आती थी। हमें यह रोटी तभी मिल सकती थी जब कोई रोटीवाला उसे जुटाता और रेलवे | उसे हमारे पास पहुँचाती । फोक्सरस्ट चार्ल्सटाउनसे बड़ा शहर था । यह चार्ल्सटाउनके सामने ट्रान्सवालका सरहदी नाका था। वहाँ एक गोरे रोटीवालेकी बड़ी दुकान थी । उसने हमें हर जगह खुशीसे रोटी देनेका करार किया। उसने हमें संकट में जानकर हमसे बाजार भावसे ज्यादा दाम लेनेकी कोई कोशिश नहीं की और रोटी भी बहुत अच्छे आटेकी बनाकर दी। उसने रोटी समयपर स्टेशनपर पहुँचाई और रेलवे कर्म- चारियोंने (जो गोरे ही थे ) ईमानदारी से वह हमारे पास पहुँचाई; इतना ही नहीं बल्कि पहुँचाने में पूरी सावधानी रखी और हमें कुछ विशेष सुविधाएँ भी दीं। वे जानते थे कि हमारी किसी से दुश्मनी नहीं है और हमें किसी को नुकसान नहीं पहुँचाना है; हमें तो स्वयं कष्ट सहकर न्याय प्राप्त करना है। मनुष्य जातिका प्रेमभाव व्यवहार रूपमें प्रकट हुआ और सबने यह अनुभव किया कि ईसाई, यहूदी, हिन्दू और मुसलमान आदि सब भाई-भाई हैं ।

इस प्रकार कूचकी सब तैयारियां हो चुकनेपर मैंने समझौतेका फिर प्रयत्न किया। मैंने पत्र और तार तो भेजे ही थे। मैंने अब निश्चय किया कि चाहे मेरा अपमान भी हो, किन्तु टेलीफोन भी कर लूँ । चार्ल्सटाउन और प्रिटोरियाका टेलीफोन सम्बन्ध था। मैंने जनरल स्मट्सको टेलीफोन किया । मैंने उनके मन्त्रीसे कहा, "जनरल स्मट्ससे कहें, मैंने कूचकी सब तैयारियाँ कर ली हैं । फोक्सरस्टके लोग भड़के हुए हैं। वे हमारी प्राणहानि कर सकते हैं। उन्होंने इस तरहकी धमकियाँ दी हैं। यह बात तो जनरल स्मट्स भी नहीं चाहेंगे। यदि वे तीन पौंडका कर रद करनेका वचन दें तो मैं कूच नहीं करूँगा । मुझे कानून तोड़नकी खातिर कानून नहीं तोड़ना है । मैं लाचार हो गया हूँ। क्या वे मेरी इतनी बात नहीं सुनेंगे ? "

आधे मिनटके बाद उत्तर मिला, “जनरल स्मट्स आपके साथ कोई सम्बन्ध नहीं रखना चाहते; आप जो चाहें सो करें।" इसके बाद टेलीफोन खटाकसे बन्द हो गया ।

मैंने भी इसी परिणामकी अपेक्षा की थी । केवल मुझे उनसे ऐसी रुखाईकी आशा नहीं थी, क्योंकि सत्याग्रह आरम्भ होनेके बाद छः सालसे मेरा और उनका राजनैतिक सम्बन्ध था; अतः मैंने उनसे सौजन्य-भरे उत्तरकी आशा की थी। किन्तु उनके सौजन्यसे मेरे फूल जानेकी तो कोई बात थी ही नहीं। इसी तरह में उनके इस असौजन्यसे ढीला भी नहीं पड़ सकता था। मुझे अपने कर्तव्यकी पगडण्डी अपने सामने सीधी और साफ दिखाई देती थी। दूसरे दिन (६ नवम्बर, १९१३को) सुबह (साढ़े छः बज) घंटा बजते ही हमने प्रार्थना की और प्रभुका नाम लेकर कूच आरम्भ किया । इस काफिले में २,०२७ पुरुष, १२७ स्त्रियाँ और ५७ बालक थे ।

१. खण्ड १२, पृष्ठ ५०८ पर दिये गये विवरणके अनुसार दलमें कोई ३,००० व्यक्ति थे । a