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दक्षिण आफ्रिकाके सत्याग्रहका इतिहास

उनमें से एक शर्त यह थी कि सत्याग्रही रिहा कर दिए जायें और दूसरी यह थी कि आयोगमें एक सदस्य तो हिन्दुस्तानियोंकी ओरसे नियुक्त किया ही जाये। पहली शर्त कुछ हदतक आयोगने स्वयं मान ली थी और सरकारने सिफारिश की थी कि वह आयोगके कामको सरल बनानेके लिए श्री कैलनबैक, श्री पोलक और मुझे बिना शर्त छोड़ दे। सरकारने उसकी यह सिफारिश स्वीकार कर ली और (१८ दिसम्बर १९१३को) हम तीनों एक साथ जेलसे छोड़ दिये गये । हमने मुश्किलसे डेढ़ महीनेकी कैद पूरी की होगी। दूसरी ओर सरकारने श्री वेस्टको गिरफ्तार तो कर लिया था, किन्तु वह अभी उनपर कोई फर्द-जुर्म नहीं लगा सकी थी, इसलिए उसने उनको भी छोड़ दिया था ।

ये घटनाएँ श्री एन्ड्रयूज और पियर्सनके वहाँ पहुँचनेके पहले ही घट चुकी थीं; इसलिए उन दोनों मित्रोंको जहाजपरसे लेने के लिए मैं ही गया था। दोनोंको इन घटनाओंकी कोई खबर नहीं थी। इसलिए उन्हें इससे हर्ष और आश्चर्य हुआ। उन दोनोंसे यह मेरी पहली ही भेंट थी ।

हम तीनोंको अपनी रिहाईसे निराशा ही हुई। हमें बाहरकी हालतका कुछ पता न था । अतः हमें आयोगकी नियुक्तिकी खबरसे आश्चर्य हुआ; किन्तु हमने यह देख लिया कि हम आयोगकी कोई सहायता करने में असमर्थ हैं। हमें आयोगमे हिन्दुस्तानियों- की ओरसे किसी भी एक आदमीका होना जरूरी जान पड़ा। इसलिए हम तीनों डर्बन गये और हमने वहाँसे जनरल स्मट्सको पत्र लिखा। इस पत्रका सार यह था : 46 'हम आयोगका स्वागत करते हैं, किन्तु हम उसमें सर्वश्री एसेलेन और वाइली- को नियुक्त करनेके तरीकेपर तीव्र आपत्ति करते हैं। हमारा उनसे व्यक्तिश: कोई विरोध नहीं है। वे प्रसिद्ध और योग्य नागरिक हैं। किन्तु उन दोनोंने कई बार हिन्दु- स्तानियोंके प्रति घृणा व्यक्त की है, इसलिए उनसे अनजाने हिन्दुस्तानियोंके प्रति अन्याय होने की सम्भावना है। मनुष्यका स्वभाव एकाएक नहीं बदल सकता इसलिए ये दोनों सज्जन भी अपना स्वभाव बदल सकेंगे ऐसा मानना प्रकृतिके नियमके विरुद्ध है। फिर भी हम नहीं चाहते कि वे हटा दिए जायें। हमारा सुझाव तो इतना ही है कि इस आयोग में कोई तटस्थ आदमी और रख दिया जाये इसके लिए हम सर जेम्स रोज-इन्स और मानीय श्री डब्ल्यू० पी० श्राइनरका नाम सुझाते हैं। ये दोनों प्रख्यात मनुष्य हैं और उनकी न्यायवृत्ति प्रसिद्ध है। हमारी दूसरी प्रार्थना यह है कि सब सत्याग्रही कैदी छोड़ दिये जाने चाहिए। यदि ऐसा न किया जायेगा तो हमारा जेलसे बाहर रहना मुश्किल हो जायेगा । अब उन्हें जेलमें रखनेका कोई कारण नहीं रहता। फिर यदि हमें आयोगके सम्मुख गवाही देनी हो तो हमें खानोंमें और जहां- जहाँ गिरमिटिये काम करते हैं, वहाँ जानेकी छूट मिलनी चाहिए। यदि हमारी यह प्रार्थना स्वीकार न की जायेगी तो हमें खेदके साथ फिर जेल जानेका उपाय खोजना पड़ेगा।"

१. २ जनवरी, १९१४ को ।

२. २१ दिसम्बर, १९१३ को; देखिए खण्ड १२ ।