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५. पत्र : वसुमती पण्डितको
मंगलवार [२४ नवम्बर, १९२५]
 
चि० वसुमती,
 

तुम्हारे पत्र मिलते हैं, लेकिन मुझे उनसे सन्तोष नहीं होता । मुझे अक्षर ऐसे सुन्दर चाहिए, मानो छपे हुए हों। जबतक तुम जमाकर लिखनेकी आदत नहीं डालती तबतक अक्षर सुधरनेवाले नहीं हैं। जितनी सावधानीसे अन्तिम वाक्य लिखा है सभी कुछ उतनी सावधानीसे लिखना चाहिए। मुझे तुम्हारी मनोदशाका चित्र भी चाहिए। कोई पत्र पढ़ लेगा, इस भयसे कुछ भी न लिखना ठीक नहीं है। किसी बातमें जो सुधार उचित जान पड़े सो तो कहना ही चाहिए। यदि वहां पाखानेके लिए रेत नहीं मिलती तो आसपाससे मँगवा लेनी चाहिए। यदि यह भी न कर सको तो ईंधन जल जानेपर जो राख बचे वह सारीकी-सारी इकट्ठी कर लेनी चाहिए और उसे छानकर नियमसे इस्तेमाल करना चाहिए । पेशाबका प्रबन्ध तो अलग होना ही चाहिए । मैं अन्य अनेक सुझाव अवश्य दे सकता हूँ; लेकिन बहुत कुछ उपाय तो स्थिति देखकर स्वयं तुम्हें ही ढूंढ लेने चाहिए।

मेरे उपवासके बारेमें किसी-न-किसीने तो अवश्य लिखा होगा, इसलिए इस सम्बन्ध तथा आश्रममें और जो-कुछ होता है उसके विषय में मैं कुछ नहीं लिख रहा हूँ।

बापूके आशीर्वाद
 

गुजराती पत्र (सी० डब्ल्यू० ५५१) से ।

सौजन्य : वसुमती पण्डित

६. मथुरादास त्रिकमजीको लिखे पत्रका अंश

२४ नवम्बर, १९२५
 

ईश्वर अच्छा ही करेगा। तुम्हें चिन्तित नहीं होना चाहिए । पूरी सावधानी रखनी चाहिए और 'गीता' का मनन करना चाहिए।

[ गुजरातीसे ]
 
बापुनी प्रसाद
 

१. उपवासको चर्चासे निश्चित ।